एक पुराना चुटकुला ज्यादातर लोगों को ध्यान ही होगा। एक सिपाही चोर का पीछा कर रहा था। चोर भागने में बड़ा माहिर था, खूब देर तक सिपाही को दौड़ाता रहा। सिपाही ने भी पीछा नहीं छोड़ा। काफी दूर आकर चोर ने घुटने टेक दिए और थक कर बैठ गया। इतने में सिपाही आया और कहने लगा अबे, जब इतना भागा था तो थोड़ा और भाग लेता, मेरा थाना क्षेत्र बस 200 मीटर बाद खत्म ही होने वाला था। यानी, मेरे क्षेत्र से निकल जाता तो मेरी झंझट खत्म हो जाती। अब तू पकड़ में आ गया है तो सारी माथापच्ची करना ही होगी।
आपको नहीं लगता कि धीरे-धीरे ये हमारे पूरे देश की हकीकत बनता जा रहा है। व्यवस्था में बैठे ज्यादातर लोग उस सिपाही की भूमिका में नजर आते हैं, जो चाहते हैं कि बस किसी भी तरह से कोई मामला मेरे अधिकार क्षेत्र से बाहर चला जाए। मेरे सिर पर न आए, बाकी भाड़ में जाए। इंदौर-पटना एक्सप्रेस भीषण दुर्घटना को लेकर मीडिया में आई लोको पायलेट की रिपोर्ट क्या यही साबित करती नजर नहीं आ रही है। सारे जिम्मेदार सिर्फ अपने सिर से नीबू-मिर्च उतार कर दूसरे पर फेकते रहे। आलतू जलाल तू आई बला को टाल तू। और टाल तू मतलब मेरे सिर से टाल बाकी किसी और के साथ क्या हो, मुझे किसी बात से कोई लेना-देना नहीं।
कैसा दृश्य रहा होगा। आम यात्री इंदौर से निकलते ही ट्रेन के पहियों में अधिक आवाज आने की शिकायत करते हैं, झटके लगने की बात ट्रेन में मौजूद रेल अफसरों को बताते हैं, लेकिन किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। वे आंख मूंदकर आगे बढ़ जाते हैं। हद तब हो जाती है, जब खुद लोको पायलेट झांसी मंडल को लोड अधिक आने की शिकायत दर्ज कराता है। वॉकी-टॉकी पर संदेश देता है, जो और भी कई अफसरों के कानों तक पहुंचा ही होगा। लेकिन जवाब क्या मिलता है, किसी तरह कानपुर तक ले जाइये। ये किसी तरह क्या होता है और उसका नतीजा क्या हुआ। कितने लोगों ने खामियाजा भुगता और अब जीवनभर कितने लोग उस हादसे की असहनीय वेदना के साथ जीने को अभिशप्त हो गए हैं। इसका हिसाब भी वे लगा सकेंगे क्या।
क्या जाने झांसी मंडल के उस अफसर के दिमाग में क्या रहा होगा। हो सकता है वे सोच रहे हों कि कानपुर पहुंच गए तो मेरे मंडल से बाहर हो जाएंगे, मेरी बला टल जाएगी। आगे फिर कानपुर जाने और उसका काम। आपको नहीं लगता कि वह जाने और उसका काम जाने ने ही सारा बेड़ा गर्क कर दिया है। रेडिमेड की दुकानों पर अक्सर एक जुमला लिखा होता है, फैशन के दौर में गारंटी की अपेक्षा न करें। पूरी व्यवस्था इसका अक्षरश: पालन करती नजर आती है। बस गारंटी की जगह आप जिम्मेदारी शब्द का इस्तेमाल कर सकते हैं।
मुझे तो यहां पूरा रेलवे ही कठघरे में खड़ा नजर आता है। वे कैसे किसी तकनीकी परेशानी को नजरअंदाज कर सकते हैं। पहिये में आवाज आना, अतिरिक्त झटके महसूस होना, लोड अधिक दर्शाना। क्या आपको नहीं लगता है कि ट्रेन ने दुर्घटना की आशंका स्पष्ट रूप से जता दी थी। इसके बाद क्या वजह है कि अफसर नजरअंदाज करते रहे। अब क्यों नहीं इन गैर जिम्मेदार अफसरों पर ही 138 से अधिक लोगों की मौत, सैकड़ों लोगों के जख्म और हजारों लोगों को आघात पहुंचाने का मुकदमा चलाया। और ड्राइवर भी क्या सिर्फ सूचना देकर ही अपनी जिम्मेदारी से बच सकते हैं। फिर वही सोच कि मैंने अपनी तरफ से बता दिया था, इसके बाद मुझसे जो कहा गया था वह मैंने किया, यानी अब मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है।
अगर ड्राइवर ने 1500 यात्रियों की जिम्मेदारी समझी होती तो क्या वह गाड़ी खड़ी नहीं कर सकता था कि जनाब मुझे नहीं लगता कि इस स्थिति में गाड़ी चलाई जाना चाहिए। यह जोखिम यात्रियों की जान से खिलवाड़ हो सकता है। अगर वहां सिंगल ट्रेक है और बीच में ट्रेन रुकने से बाकी ट्रेनों के लेट होने का डर भी था तो उसमें कौन सी बात थी। हमारे देश में कब ट्रेन एकदम समय से चलती हैं, एक दिन और कुछ ट्रेनें लेट हो जातीं तो हो जातीं, कम से कम इतना बड़ा पहाड़ तो नहीं टूटता। और सवाल यह भी है कि ड्राइवर को किसी तरह कानपुर तक ले जाने को कहा गया था और उन्हें लग रहा था कि ट्रेन की हालत ठीक नहीं है तो फिर उसे इतनी स्पीड में चलाने की क्या जरूरत थी। वे थोड़ा धीरे भी तो आगे बढ़ सकते थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और हुआ वह जो हद दर्जे के विफल तंत्र में स्वाभाविक है। रेलवे अपने कर्मचारियों को इमरजेंसी में तत्परता का भाव सिखाना इस कदर कैसे भूल सकता है।
ऐसी घटनाओं के बाद इन जाने क्यों ऐसा लगता है कि देश बीच सडक़ पर खराब हो चुकी गाड़ी में तब्दील हो गया है। उसे किसी तरह धक्का लगाकर जैसे-तैसे ढेलने की कोशिश की जा रही है। ये फलीभूत होती इसलिए नजर नहीं आतीं, क्योंकि गाड़ी में जितने लोग बैठे हैं, वे बस बैठे हैं, गाड़ी की दशा और दिशा से उन्हें कोई सरोकार नहीं है। वे गाड़ी की सुख-सुविधाओं का पूरा आंनद लेना चाहते हैं, लेकिन किसी कीमत पर जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं हैं। देखते ही देखते देश धक्का परेड हो गया है और हम ये इंडिया है, यहां ऐसा ही होता है, जैसे जुमलों से खुद को तसल्ली देने की असफल कोशिश करते रहते हैं।