दिल बैठ जाता है, उस वक्त जब कोई पुराना दोस्त मिलता है और हम बचपन की यादों में खो जाते हैं। एक हूक सी उठती है और मुंह से यही निकलता है कि हाय हम बड़े क्यों हो गए। सच में खुद से यह सवाल कई बार पूछा होगा कि आखिर हम सब बच्चे क्यों हो जाना चाहते हैं। ये जिंदगी की जिम्मेदारियों के आगे किसी की हार है या फिर उसी मासूमियत में लौट जाने की ख्वाहिश। अगर हार है तो बच्चा बनकर भी उसे जीत में बदल पाने की कोई सूरत नजर नहीं आती और अगर सच में बच्चा हो जाना चाहते हैं तो किस ने रोका है। जिंदगी का कोई मोड़ ऐसा नहीं, जहां आप अपने बचपने को लौटा न सकें।
बड़े होने के अपने दुख हैं और ये जब-तब सीने पर सांप की तरह लोटते हैं। कई बार सुना होगा लोगों को ये कहते कि ये भी कोई जिंदगी है। इससे तो वे ही दिन अच्छे थे, जब सच में हम बच्चे थे। किसी बात की कोई फिक्र नहीं। सुबह मां उठा ही देती थी। टूथ ब्रश पर पेस्ट लगा हुआ हाथ में मिलता था। नहला कर तैयार भी कर देती थी। दूध का ग्लास और नाश्ता तैयार रहता था। बस्ता उठाया और टेम्पो में बैठकर सवारी निकल पड़ती थी। वहीं से धमाचौकड़ी शुरू हो जाती थी। किसी को देखकर मुंह बनाया, किसी से रूठ गए। किसी को हाथ हिलाकर इशारा किया तो किसी पर ठहाके लगा दिए। दोस्तों से तकरार हुई तो लड़ लिए, बर्थ डे पर बांटी चॉकलेट और खेलते वक्त खो गई गेंद वापस मांगने की धमकी देकर चुप करा दिया। होमवर्क नहीं हुआ तो मैडम के सामने दो आंसू रो लिए। सिर झुका लिया, फिर जमीन पर जूता घिसने लगे।
जी में आया तो खेले-कूदे और नहीं तो किसी का खेल बिगाड़ दिया। पेड़ से झड़े पत्ते बंटोरे, रंगीन कागजों के टुकड़े कापियों में सजा लिए। पन्ने फाड़े हवाई जहाज बनाए और पूरी दुनिया का चक्कर लगाकर शाम को घर लौट आए। वही घर जहां ढेर सारा प्यार-दुलार इंतजार में टकटकी लगाए बैठा था। मेरा राजा बेटा आ गया पढ़ कर, अच्छे से पढ़ाई की ना, शरारत तो नहीं की। होमवर्क मिला है क्या। पहले हाथ मुंह धोकर कुछ खा ले, फिर फटाफट होमवर्क करेंगे, फिर खूब खेलेंगे। और होता भी वैसा ही थी। जितना लिख-पढ़ सके, पढ़ लिया बाकी मां लिख देती थी, किसी पन्ने पर लिखकर रख लेती थी। ताकि बाद में पढ़ा सके, परीक्षा के लिए तैयार कर सके। फिर सोसायटी में दोस्तों के साथ साइकिलिंग, रेस, आइस वाटर होता, पसीने से तरबतर घर लौटते।
कई हाथ मुंह में कौर देने को तैयार होते। कहानियां सुनते हुए न जाने कब नींद आती और सपनों की सैर पर ले जाती। और जब अब में आते हैं तो बिल्कुल उलट-पुलट जाते हैं। सुबह न भी हो तो हम उसे खींचकर लाते हैं, लानी ही होती है। सूरज भले भूल जाए हमें तो दफ्तर की फाइल निपटानी ही है। सुबह से शुरू होता चरखा, जो कभी थमता ही नहीं। आवाजें घेरे रहती हैं, पूरे समय। ये करना है, ये बाकी है, वह कब करोगे, कैसे करोगे, क्या होगा, जो होगा, वह कैसा होगा। आप सूरज की तरह तपते हैं और जिंदगी की जरूरतें दूर-पास के ग्रहों की तरह पूरे समय आपके आसपास चक्कर लगाती रहती हैं। वहां दिन-रात होते हैं, मौसम बदलते हैं, लेकिन आप वहीं रहते हैं।
तब ये खयाल आता है कि यार जिंदगी तो वही थी जो जी आए हैं, अब तो बस जीने की रस्म अदा कर रहे हैं। तब आप बच्चा हो जाना चाहते हैं। ये अपने आज से वैराग्य की ही एक कड़ी है। क्योंकि बाकी समय आप अपने कडक़ प्रेस कपड़ों में छुपा लेना चाहते हैं उन सारे अहसासों को, जो कैद है, आपके भीतर, उथल-पुथल मचाते हैं। जितने बड़े हुए उतने दुख बड़े हुए। जितने छोटे उतने सुख बड़े हुए। हमने ही तो ये दरवाजे बंद किए और अब खुद के कैद होने की शिकायत करते हैं। जिंदगी को फिर से पलटकर देखिए, हर उम्र में बच्चा हो जाना जितना आसान है, शायद उतना कुछ भी नहीं। उलट कर रख दीजिए अपने आपको, जिंदगी खुद ब खुद पलट जाएगी।
हालांकि हम इसलिए बचते हैं, क्योंकि इसमें खतरे बड़े हैं । हमने अपने आसपास ऐसा जहां रच लिया है कि उसी सहजता और मासूमियत के साथ खड़े रहने से डरते हैं। खुद की कहने से डरते हैं, दूसरों की सुनने से डरते हैं। छुपाना चाहते हैं, बचाना चाहते हैं। बचपन तो अपनी जेब में रखे कंचे भी टकरा-टकरा कर सबको बता देना चाहता है और हम ढेरों आवारण ओढक़र खुद को बच्चा बना लेना चाहते हैं। ये हो नहीं पाएगा। होगा तभी जब हम सिर्फ हम होना चाहेंगे। इसलिए बड़े हो गए कोई दुख नहीं बचपन बरकरार रहना चाहिए और उससे आपको कोई नहीं रोक सकता।
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