( आखिर कितना कूड़ा भरा है दिमाग में, इतना लाए कहां से..)
क्या हमारी जिदंगियों में सेक्स के अलावा कुछ बाकी नहीं रह गया है। जिस्म के शेष सारे अंग किसी काम के नहीं रहे। आखिर कितना सेक्स चाहिए। मंदिरों के बाहर मूर्तियों में वही मुद्रा है। मोबाइल पर चल रही क्लिपिंग्स में वही है, साइट पर वही खोज रहे हैं और आसपास भी बस उसी तलाश में लगे हुए हैं। सार्वजनिक शौचालयों में मर्दाना ताकत बढ़ाने के विज्ञापन हैं तो ट्रेन में भद्दे चित्र और कमेंट लिखे हैं। बाजू में कई नंबर भी चस्पा हैं। और लोग उसी में सेक्सुअल प्लेजर ले रहे हैं।
रेलवे पटरियों के दोनों तरफ की तमाम दीवारें नीम-हकीमों ने लीज पर ले रखी हैं। वहां वे पुश्तों से आजमाए नुस्खे बेच रहे हैं। गोया रेल के सफर में भी आदमी एक ही तलाश में है। आसपास की जिंदगियों में झांककर देखते हैं तो दफ्तरों की चुहलबाजी में वही निशाने पर है, सडक़ों की शोहदेबाजी में भी एक ही भूख नजर आती है। कहीं नजरों से, कहीं इशारों से तो कहीं हाथ-पैरों से भी, बस एक ही जद्दोजहद चलती दिखाई देती है। उसी होड़ में सब ताक पर रख दिया गया है। कहीं बच्चियां निशाने पर हैं तो कहीं मासूम लडक़े। जैसे लोग 24 घंटे शिकार पर ही हैं। जननेंद्रियां नहीं हुईं अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा हो गया। विश्व विजेता बनने के लिए जो सामने आए उसी पर टूट पडऩे को आतुर।
भीड़ का तो पूरा चरित्र ही भूखे भेडिय़ों सा होता जा रहा है। मंदिर की लाइन में भी लोग बाज आने को तैयार नहीं हैं। जरा सी भीड़ इक_ा हुई नहीं कि लोग हरकतों पर उतर आते हैं। कोई धक्का मारकर गुजर जाता है तो कोई सटकर खड़ा हो जाता है। कपड़ों की दुकानों के बाहर लगने वाली मेनिक्वीन को देखने के अंदाज भी ऐसे होते हैं कि अगर उसमें रूह हो तो वह भी शर्म से डूब मरे। सुना है किसी देवता ने वरदान दिया था कि इस आयु से कम उम्र में इस तरह के भाव नहीं आएंगे, लेकिन अब तो वह वरदान भी सवालों के घेरे में नजर आता है। स्कूली बच्चों की बातचीत में भी जिज्ञासावश अथवा टीवी-फिल्मों व बड़ों की देखादेखी ही सही, वही जहर घुल रहा है।
दो दिन पहले की बात है एक सिर्फ उम्र से बुजुर्गवार बच्चे को टहला रहे थे। उसी बीच कॉलेज से छात्राओं का झुंड निकला। बच्चे को भूल-भालकर उनकी आंखें लड़कियों केजिस्मों पर ही चिपक गईं। गली में जब तक वे नजर आती रहीं, उन्होंने पलक भी नहीं झपकाई। सिर के सफेद बाल, मोटी तोंद और आंखों पर चढ़े मोटे चश्मे से झांकती उम्र न उनकी राह का रोड़ा थी और न ही लिहाज का विषय। किस बात की कुंठा है भाई, क्या रह गया है, इस उम्र तक जो नहीं कर पाए हैं। अगर कुछ बाकी है तो चौपाइयां बाचने की उम्र में वह भी कर गुजरिये, लेकिन इस तरह किसी की शर्म का विषय तो ना बनें।
हद तब हो गई जब पिछले दिनों एक म्यूजियम देखने गया। वहां पाषण प्रतिमाओं के कुछ अवशेष स्त्रियों जैसे भी थे। एक हजरत का सौंदर्यबोध वहां भी जाग गया। साफ लिखा था, मूर्तियों को हाथ लगाना मना है, लेकिन यहां-वहां हाथ लगाते-लगाते वे उभारों तक पहुंचकर ही माने। एक बार हाथ घूमाकर फिर दूसरी तरफ देखने लगे। उस वक्त उनकी आंखों से जो कमीनापन झांक रहा था, उसे बयां कर पाना मुश्किल है। अब उस मूर्ति ने कोई छोटे और भडक़ाऊ कपड़े नहीं पहने थे और न ही वह समय-बेसमय सडक़ पर मोबाइल लेकर निकली थी।
समझना मुश्किल है कि आखिर ये हो क्या रहा है। क्या हमारी जिंदगियां इतनी खाली हो गई हैं। कैसा निर्वात बना लिया है हमने अपने भीतर कि वह सिर्फ और सिर्फ लैंगिंक सुख से सांस पाता है। कितनी कुंठाएं, अवसाद भर लिए हैं कि किसी भी तरह एक ही आनंद को हासिल करने की फिराक में खोए हैं। यह जहर की तरह फैल रहा है। निर्भया से लेकर रेयान स्कूल के उस मासूम तक सब इसी के तो शिकार हुए हैं, लेकिन आखिर कब तक कैसे दूर होगा यह कोहरा।
किसी ने कहा कि मर्यादा और नैतिकता का पाठ पढ़ाने से ही बदलेंगे हालात, लेकिन सोचकर देखिए मर्यादा और नैतिकता कोई वृहस्पति से आई कोई वस्तु थोड़ी है। सामान्य समझ से उपजा स्वाभाविक अनुशासन ही तो है। उसे जीवन में लाना इतना जटिल कैसे हो सकता है। रही धर्मग्रंथों की बात तो कौन है जो उनके मर्म से सर्वथा अनभिज्ञ है। लोग कहते हैं भारतीय खुले नहीं है, अपने मनोभाव दबाकर रखते हैं, इसलिए इतनी मुसीबत होती है। अरे भैया, अब तो कोई अपने भाव नहीं दबा रहा। बेडरूम से लेकर गली-मोहल्लों तक, वाट्स एप पर फेसबुक के इनबॉक्स तक भी गंदगी उड़ेल दे रहे हैं। उसके बाद भी रेचन नहीं हो रहा। आखिर कितना कूड़ा भरा है दिमाग में, इतना लाए कहां से।