कहते हैं कभी दुर्योधन ने खीज मिटाने के लिए पांडवों को खांडव वन दिया था, जिसे उन्होंने इंद्रप्रस्थ बना दिया। कालांतर में वह दिल्ली बनी और वही दिल्ली हजारों वर्षों से सत्ता का केंद्र है। ईष्या और द्वेष के जो बीज वहां महाभारत काल में बोए गए थे, वे अब तक सत्ता के गलियारों में कांटे रोप रहे हैं। दिल्ली के खेवनहार खुद ही तूफान में फंसी नाव की तरह डोल रहे हैं। कोई दिल्ली को नहीं छोडऩा चाहता और खुद दिल्ली इनकी खींचतान से दोहरी हुई जाती है।
वास्तव में दिल्ली के भाग्य की लकीरों को समझना बड़ा मुश्किल है। केंद्र की भारी-भरकम सरकार के तले वह खुद भी आधे-अधूरे राज्य की ताकत लिए बैठी है। जब बाजुएं फडक़ती हैं तो उन ताकतों का इस्तेमाल करने का मन करता है, लेकिन जैसे ही वह फन उठाती है, केंद्र उस पर अपना पैर रख देती है। अब सरकार होकर भी असरकार न हो तो फिर ऐसी सरकार होने का क्या फायदा। धरने-प्रदर्शन से लेकर कोर्ट-कचहरी तक सब कर लिया, लेकिन सवाल फिर भी वहीं का वहीं है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा नतीजे के बाद भी दोनों ही अपनी-अपनी जीत की हुंकार भर रहे हैं।
वैसे भी दिल्ली का मामला बड़ा पेचीदा है। है तो वह राज्य शासित प्रदेश, लेकिन बाकी यूनियन टेरिटरी के मुकाबले उसे कुछ अधिकार अतिरिक्त मिले हुए हैं। यही अधिकार उसे ताकतवर भी बनाते हैं और उसकी महत्वाकांक्षा की आग में घी भी डालते हैं। राज्य पुनर्गठन आयोग ने 1956 में ही दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश बनाया था, लेकिन 1991 में इसे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का विशेष दर्जा दे दिया गया। अब यहां सत्ता के आधा दर्जन केंद्र हैं। सबसे ऊपर देश की संप्रभु सर्वोच्च सत्ता संसद है। उसके बाद जनाब उपराज्यपाल यानी कि लेफ्टिनेंट गर्वनर आते हैं। इसके बाद दिल्ली की 70 में से रिकॉर्ड 67 सीट जीतने वाली आम आदमी पार्टी की सरकार है। फिर तीन म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन हैं, दिल्ली केंटोनमेंट बोर्ड और एनएमडीसी के साथ ही दिल्ली विकास प्राधिकरण अलग है।
बाकी सब अपनी जगह है, लेकिन असली खींचतान केंद्र और दिल्ली की सरकार के बीच है। केंद्र को लगता है कि जैसे बाकी यूनियन टेरेटरी है, वैसे ही दिल्ली भी चुपचाप उसकी सत्ता स्वीकार कर ले, लेकिन दिल्ली को लगता है कि अगर सरकार है तो आधी-अधूरी शक्तियां क्यों। मुश्किल यह है कि दिल्ली की सरकार पुलिस, कानून और व्यवस्था, नागरिक सुविधाएं जैसे बिजली, पानी व ट्रांसपोर्ट के साथ ही जमीन के मामलों में कोई दखलंदाजी नहीं कर सकती। इन पर केंद्र ही कानून बना सकती है।
यहां तक कि वे कलेक्टरों से लेकर क्लर्क तक पर भी बहुत सीमित अधिकार रखती है। केअब ऐसी सरकार का क्या मतलब जिसके मुख्यमंत्री के घर में ही पुलिस घुस जाए और कैमरों की रिकॉर्डिंग निकलवा ले और अफसर मंत्रियों का ही कहा नहीं सुने। यहां तक कि गृह मंत्रालय ने एंटी करप्शन ब्यूूरो की सेवाएं भी वापस ले ली हैं। इसके बाद दिल्ली सरकार अफसरों के खिलाफ कोई कार्रवाई करने की स्थिति में भी नहीं रह गई है। हर मामले में उसे एलजी का मुंह देखना होता है।
हद यह है कि आम आदमी पार्टी तो अभी आई है, दिल्ली को पूर्ण राज्य देने का लालीपॉप दोनों ही बड़े दल वर्षों से थमाते आ रहे हैं। खुद लालकृष्ण आडवाणी ने 2003 में संसद में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का बिल पेश किया था। इसके बाद 2013 और 2015 के चुनाव में भाजपा के घोषणा पत्र में इसका वादा दोहराया गया था। यहां तक कि 2014 के लोकसभा चुनाव घोषणा पत्र में भी यह शामिल था, लेकिन सत्ता में आते ही उसने इसे नकार दिया। काग्रेस ने भी 2015 के चुनाव घोषणा पत्र में इसे शामिल किया था। केजरीवाल तो 2015 में स्टेट ऑफ दिल्ली बिल भी पास कर चुके हैं, लेकिन वह फाइलों में ही धूल खा रहा है। वे ये तक कह चुके हैं कि अगर केंद्र दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दे तो मैं भाजपा का प्रचार करूंगा।
और इन सबके बीच दिल्ली की जनता एक महान सियासी नाटक की चश्मदीद बनी हुई है। उसे समझ नहीं आ रहा है कि शहर की तमाम अव्यवस्थाओं के लिए किसे दोषी ठहराए और जिम्मेदार माने। वहां की सारी सरकारें मिलकर ऐसा घोटा लगा रही है कि जनता चक्करघिन्नी है। सभी एक ही सवाल पूछ रहे हैं कि आखिर दिल्ली है किसकी।