अक्सर एक सवाल मन में आता रहा कि आखिर इतने वर्षों की गुलामी के बाद मिली आजादी का गौरव हम ज्यादा देर महसूस क्यों नहीं कर पाए। ऐसा क्या हुआ जो लोगों का सत्ता प्रतिष्ठानों से इतनी जल्दी मोहभंग हो गया। आजादी के पहले हर घर में देश पर मर मिटने वाले लोग पैदा हो रहे थे और इतने कम वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि सब मैं, मेरा घर, मेरा परिवार तक सिमट कर रह गए हैं। पीछे मुडक़र देखते हैं तो लगता है आपातकाल ही उस अंधेरे का नाम है, जिसने जलसे के सारे दीपक बुझा दिए। उम्मीदों की नाव डुबोई और लोगों को अहसास करा दिया कि लाखों लोगों की कुर्बानी से हासिल आजादी चंद मुट्ठियों

में कैद होकर रह गई है। उनके लिए सियासत का मतलब सिर्फ कुर्सी है, जिसे बचाने के लिए वेे किसी भी हद से गुजर सकते हैं।
और क्या था इलाहबाद हाईकोर्ट का फैसला ही तो था, जिसने चुनाव में सरकारी मशीनरी के गलत इस्तेमाल का दोषी पाते हुए इंदिरा गांधी की जीत खारिज कर दी और उन्हें छह साल के लिए चुनाव लडऩे से अयोग्य करार दे दिया। 12 जून को जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने यह फैसला सुनाया। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जस्टिस कृष्णा अय्यर ने आदेश को बरकरार रखा, लेकिन तीन हफ्तों के लिए आगामी व्यवस्था तक इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बने रहने की इजाजत दे दी। यही अनुमति लोकतंत्र को ताबूत में ले जाने वाली साबित हुई। कहते हैं, एक बारगी इंदिरा ने इस्तीफा देने का फैसला कर लिया था, लेकिन बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थशंकर राय और संजय गांधी ने उन्हें समझाया कि सत्ता छोडऩे का कोई मतलब नहीं है।
इधर, जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा के इस्तीफे तक हर रोज प्रदर्शन की चेतावनी दे रखी थी। बिहार की सरकार के खिलाफ उनके प्रदर्शन चल ही रहे थे। इसी दौरान उन्होंने आह्वान किया कि सेना और पुलिस के लोग सरकार की उन बातों का समर्थन न करें जिससे वे सहमत न हो। सिंहासन खाली करो कि जनता आती है गली-गली में गूंजने लगा था। बताते हैं कि इंदिरा ने सिद्धार्थ शंकर राय को कानून की कोई कमजोर कड़ी ढूंढने का कहा। उन्होंने कानून की सारी पुस्तकें खंगाल डाली और इंदिरा को आपातकाल की राह दिखाई। बिना कैबिनेट की बैठक बुलाए, रात 11.30 बजे देश में राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के दस्तखत से आपातकाल लागू कर दिया गया। कैबिनेट की बैठक 26 जून को सुबह हुई, जिसकी सूचना सिर्फ 90 मिनट पहले दी गई थी।
इंदिरा ने जेपी के उसी बयान को आधार बनाया, ऑल इंडिया रेडियो के दफ्तर पहुंची और आपातकाल की घोषणा करते हुए कहा कि एक जना सेना को विद्रोह के लिए भडक़ा रहा है। देश की एकता और अखंडता के लिए ये फैसला लेना जरूरी हो गया था, जबकि वास्तव में वे सिर्फ अपनी कुर्सी बचाना चाहती थीं। इसके बाद जो कुछ हुआ, उसके नतीजे हम अब तक भुगत रहे हैं। आपातकाल सिर्फ प्रजातंत्र नहीं बल्कि प्रजातंत्र के प्रति लोगों के भरोसे की हत्या थी। वह खून अब तक ताजा है, उसकी गंध सत्ता के गलियारों में कमोबेश रोज ही जन सरोकारों का दम घोटती है।
अखबारों की बिजली काट दी गई। विदेशी मीडिया संस्थानों के प्रतिनिधियों को पांच घंटे में देश छोडऩे का फरमान जारी कर दिया गया। कुछ को तो परिवार के बगैर ही देश के बाहर कर दिया गया। इंडियन एक्सप्रेस ने जब संपादकीय का पन्ना खाली छोड़ा तो दो दिन तक उन्हें बिजली नहीं दी गई। किशोर कुमार को सरकार की प्रशस्ती गाने के लिए कहा गया, उन्होंने इनकार किया तो रेडियो, टीवी पर उनके गाने बंद कर दिए गए। उनके यहां इनकम टैक्स की रेड डलवाई गई। आखिर में किशोर को झुकना पड़ा। अमृता नाहटा की फिल्म किस्सा कुर्सी का एक प्रिंट ढूंढ-ढूंढ कर जलाए गए। गुलजारी की आंधी पर पाबंदी लगा दी गई।
आश्चर्य इस बात का है कि उस वक्त भी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की थी, जिन्हें आपातकाल सही लग रहा था। क्योंकि अफसर-कर्मचारी समय पर दफ्तर आते थे, बस और ट्रेन टाइम पर चल रही थीं। अतिक्रमण हट रहे थे। बोलने की आजादी पर पाबंदी के खतरे महसूस करने वाले लोग उन दिनों भी कम थे। इसलिए आज भी कई लोग आपातकाल का समर्थन करते मिल जाएंगे। संजय गांधी नसबंदी का अभियान छेडक़र कोई 62 लाख लोगों की नसें नहीं कटवाते तो शायद स्थिति कुछ और होती।
पत्रकार कुलदीप नैयर ने कहीं लिखा है कि जब वे संजय गांधी के इंटरव्यू के लिए पहुंचे तो संजय ने एक ऐसी योजना का खाका पेश किया, जिसमें 30 वर्षों तक चुनाव की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। वे एक ऐसा मसौदा लेकर आए थे जो प्रजातंत्र की हत्या कर सबकुछ मैनेजबल बना देता। भला हो कि आईबी ने रिपोर्ट दी कि चुनाव कराएंगे तो प्रचंड जीत मिलेगी। इसी भरोसे पर 21 महीने बाद आपातकाल खत्म कर दिया गया।
जनता ने सत्ता के रसूख को उस वक्त तो धूल में मिला दिया, लेकिन दाढ़ में खून लग चुका था। यमदूत ने घर देख लिया था, अब कुछ बाकी नहीं रह गया था। प्रजातंत्र के फेफड़ों में इतना घना कोहरा भर दिया गया कि अब तक वह खुलकर सांस नहीं ले पाता। सत्ता के गलियारों में निरंकुशता की ऐसी नागफनी बोई गई, जो अब तक हमें छलनी किए हुए है।