कल थोड़ी देर लंबी हवाएं चली थीं, तब से गुदगुदी मची हुई थी। आज दोपहर में सूरज का डब्बा गोल होते ही मेहबूब की पहली चिट्ठी अपने पते पर आ पहुंची। ऐसा लगा मानो परदेस गए प्रीतम ने आने से पहले हरकारे भेजे हैं। माथे से टपकती बूंदों से लेकर पेड़ों की मुरझाती पत्तियों तक पर स्मृतियों के चुंबन उभर आए।
धूल जमीन से उठकर आसमान की तरफ दौड़ पड़ी, मानो उससे अब इंतजार सहा नहीं जा रहा। सूरज की किरणों ने सारा रस चूसकर उन्हें कण-कण बिखेर दिया था। मेहबूब की जरा सी दस्तक ने महीनों की पीड़ा को चुटकी में दूर कर दिया। वे बौराकर झूम उठी। कभी इधर तो कभी उधर भागने लगी और जब कुछ समझ नहीं आया तो हवाओं का लहंगा बनाकर घूमर नाच उठी। कभी पेड़ों के शिखर पर फुदक कर चढ़ बैठी तो कभी झोपडिय़ों के छप्पर में सीटियां बजाने लगी। टीन के शेड बजाकर जैसे सबको आगाह कर रही हो।
कुछ देर बाद हुई हल्की-फुल्की बूंदाबांदी ने सूखी हवाओं में स्नेह की नमी घोल दी। पौरों में उसकी आहट का अहसास हवाओं को नशीला बना गया। वे सबको गुदगुदाने निकल पड़ी। किसी के माथे का पसीना उड़ाया तो किसी के सूखे कंठ में उम्मीद पर कायम रहने का भरोसा जगाया। फूलों से मिली, फलों संग इठलाई। छज्जे पर सूखते कपड़े ओढक़र उन्हें दूर तक छोड़ आई। वह प्रियतम का संदेश सब तक पहुंचाने की जिम्मेदारी निभाने में कोई कसर बाकी नहीं रहने देना चाहती।
जल-जलकर दोहरा हुआ आसमान भी मटकने लगा। सबसे पहले रूई से सफेद बादलों के बीच जगह बनाई। उन्हें धीरे से खिसकाया और उनके बीच धुंधले-मटमैले और प्रियतम के श्यामल रंग की ओर बढ़ते बादलों को पास बुलाया। उनका माथा चूमा, सिर सहलाया। ठीक वैसे जैसे उम्र के आखिरी पायदान पर कोई बुजुर्ग से स्नेहभर कर अपनी पूरी विरासत नई पीढ़ी को सौंपने को आतुर हो। आसमान इन श्यामल बादलों का राज्याभिषेक करने लगा। उनका आलिंगन कर खुद आसमान दमकने लगा। इतने महीने सूरज को सहते हुए उफ न किया, लेकिन नवांकुरों का सत्ता सौंपते हुए जैसे उसकी भी आंख भर आई। थोड़ी छलकी थोड़ी भीतर स्नेह का सोता बनकर ठहर गई।
इधर, परिंदों की तो जैसे लॉटरी लग गई। दोनों पंख फैलाए ऐसे उडऩे लगे, जैसे पूरा आसमान आज घोंसले में उठाकर ले आएंगे। एक, दो, तीन, चार जब तक फेफड़ों का सारा ताप निकल नहीं गया वे चक्कर ही लगाते रहे। कई दिनों बाद उनकी चहचहाट में सुरों की मिश्री घुली हुई थी। कभी किसी छत के कंगूरे पर बैठकर बतियाते तो कभी पेड़ के ऊपर चढक़र देखने लगते। मानो अंदाजा लगा रहे हों कि कितने दिन बाद वे अपने प्रिय की बाहों में होंगे। जरूर वे बच्चों को पिछली बारिशों के किस्से सुना रहे होंगे।
पेड़ों का तो कहना ही क्या। कल दोपहर में जो अशोक सूरज के सामने पत्तियां लटकाए खड़ा था। जैसे किसी बच्चे को शरारत करने पर अचानक प्रिंसिपल के सामने खड़ा कर दिया गया हो। आज वह भी नाच रहा था। गुलमोहर ने जमीन पर बिछा दिए ढेर सारे फूल। आम ने कैरियां टपकाई तो जामुन भी जमीन पर आकर तालियां बजाने लगा। जैसे घने मेघों को अपना खजाना दिखाकर लुभाना चाहते हो कि प्रिय आ जाओ मैंने इन आठ महीनों में तुम्हारे लिए कितना कुछ बंटोर कर रखा है। ये फूल, ये फल और मेरा सारा श्रृंगार सब तुम्ही से है, तुम्हारी ही अमानत है।
अब सवाल यही है कि उनके आने की आहट से ही पूरी कायनात में जश्न शुरू हो गया है, जब बाखुदा वे अपनी पूरी शानो-शौकत से हाजिर होंगे तो दिलों का हाल क्या होगा। तार झनझना चुके हैं, मन का मृदंग बज उठा है। कानों में सितार के स्वर घुल गए हैं तो सांसों में बांसूरी के स्वर समा गए हैं। जिधर नजर दौड़ाता हूं हर जर्रा उसके आगमन की तैयारियों में जुटा नजर आता है। एक खुशबू सी घूल गई है एक तरन्नुम सी छिड़ गई है। हम दिलों के दरवाजे खोले बैठे हैं, अब और देर न करो, खुशियों की बारात लेकर आ ही जाओ।
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