आप फिल्म देखने कैसे जाते हैं, चाहे दोस्तों के साथ जाएं या परिवार के साथ। पहले फिल्म की रिपोर्ट देखी, रिव्यू पढ़े, रेटिंग चेक की उसके बाद मन बनाया। इंटरनेट पर टिकट बुक किया या फिर विंडो से टिकट लिया, पॉपकार्न और कोल्डड्रिंक खरीदा और जा पहुंचे थियेटर के भीतर। ज्यादातर लोग ऐसे ही तो फिल्म देखते हैं, लेकिन बैंगलुरू में फिल्म देखने का जो उत्सव देखा है वह सारे पारंपरिक तौर-तरीकों को ध्वस्त करते हुए उसे एक जुनून में तब्दील कर देता है।
तेरे नाम जब आई थी तो कुछ लोगों को राधे की तरह हेयर स्टाइल बनाकर ढोल-ढमाकों के साथ फिल्म जाते हुए देखा था। उसके बाद बैंगलुरू में फिल्म का जो उत्सव देखने को मिला, वह होश उड़ा देने वाला है। मुंबई फिल्म इंडस्ट्री जहां पायरेसी की आड़ में फिल्मों के पिटने का दर्द छुपाती है, वहीं कन्नड़ फिल्म के लिए प्रशंसकों का उत्साह आल्हादित कर देता है। टॉकिज के बाहर फूलों से बने चार-पांच बोर्ड लगे हैं, जिनमें फिल्म का नाम महक रहा है। ठीक उसी तरह जैसे हमारे यहां शादियों में होता है।
टॉकिज के बाहर के खुले मैदान में लिग्गियां और रिबन टांगी गई हैं, जैसे अमूमन लोग बड़े त्योहारों पर ही करते हैं। बाजू की दीवार पर फिल्म एक्टर धु्रवा सर्ज के दो विशालकाय कटआउट लगे हुए हैं, जिन पर भारी-भरमक फूलमाला डली हुई है। अंदर की दीवार पर बड़े-बड़े पोस्टर अलग लगे हैं। ऐसा माहौल बाकी जगह किसी बहुत बड़े आयोजन या फिर त्योहार पर ही देखने को मिलता है।
शो के कोई डेढ़ घंटे पहले से टॉकिज के बाहर भारी भीड़ जमा है। उसी बीच एक और दीवार पर नजर पड़ी। उस पर कुछ होर्डिंग्स लगे हुए थे। वैसे ही जैसे हमारे यहां किसी नेता के जन्मदिन आदि पर लगते हैं। उस पर ढेर सारे लोगों के फोटो चस्पा थे। ऐसे चार-पांच अलग-अलग होर्डिंग थे। उस पर कन्नड़ में लिखा हुआ था, कुछ समझ नहीं आया तो पास में खड़े एक सज्जन से पूछ लिया। उन्होंने बताया कि ये सारे फेंस हैं, जो फिल्म देखने आने वाले हैं। वे अपने अंदाज में अपने पसंदीदा एक्टर के साथ उसकी नई फिल्म को सेलिब्रेट कर रहे हैं।
इसी दौरान दो लोगों पर नजर पड़ी। उनके हाथ में टिकट था और वे भरजरी-भरजरी दोहरा रहे थे। समझने में ज्यादा देर नहीं लगी कि वे दोनों टिकट ब्लैक कर रहे थे। मैं आश्चर्य में पड़ गया, क्योंकि हमने तो टिकट ब्लैक होते सिर्फ फिल्मों में ही देखे हैं। वे इस दौर में भी 120 रुपए का टिकट 200 रुपए में बेच रहे थे। मैंने रोका तो बालकनी और फैमिली बॉक्स के टिकट आगे बढ़ा दिए। मैंने इनकार में सिर हिला दिया, नहीं चाहिए तो आगे बढ़ गया। बाकी लोगों से मोलभाव करने लगा। टिकट खरीद रहे एक युवक से पूछा कि क्यों खिडक़ी से टिकट नहीं मिलेगी क्या, तो कहने लगा वहां बहुत लंबी लाइन होगी। दोस्त के साथ आया हूं तो थोड़ा-बहुत ऊपर-नीचे चलता है। लाइन से बचे वक्त में मैं इसे आइस्क्रीम खिलाऊंगा।
पास में खड़े एक युवक से पूछा कि भाई आखिर ऐसी क्या खासियत है इस फिल्म में जो लोग इतने दीवाने हो रहे हैं। उसने टूटी-फूटी हिंदी में जवाब दिया, ये जो हीरो है ना धु्रवा सर्ज उसे एक्शन का प्रिंस कहते हैं। आपके यहां जेंटलमैन में जो आया था न यह उसका भाई है। पांच साल बाद फिल्म लेकर आया है। इसलिए उसके फैंस बहुत खुश हैं। लगे हाथ मैंने पूछ लिया कि इस दीवानगी की वजह क्या है, तो कहने लगा, यहां तो लोग ऐसे ही करते हैं। अपने पसंदीदा स्टार की फिल्म आती है तो ऐसे ही उसका जश्न मनाते हैं। इसी उत्साह के साथ फिल्म देखने आते हैं। मैंने पूछा ये भरजरी क्या है, तो कहने लगा इसका मतलब होता है जोश। मैंने कहा, क्या इसलिए है प्रशंसक इतने जोश में है तो वह सिर्फ हंस दिया।
अपने पसंदीदा स्टार के प्रति ऐसी महोब्बत कितनों को नसीब होती है। खासकर बॉलीवुड में तो शायद गिने-चुने ही लोग होंगे, लेकिन यहां तो रेलमपेल मची है। इस दीवानगी की वजह जानना चाहता था, लेकिन लोग हिंदी, अंग्रेजी में न उतना समझ पा रहे थे और न ही बता पा रहे थे। वहां से निकलने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था। तभी एक और टॉकीज पर नजर पड़ी। वहां पटेल की लडक़ी से पंजाबी का ब्याह और कंगना रानौत की सिमरन के पोस्टर लगे हुए थे। अमूमन सन्नाटा सा पसरा हुआ था।
मैं सोच रहा था ये भी फिल्म है, वह भी फिल्म ही है, लेकिन शायद उन फिल्मों से यहां की मिट्टी की सुगंध नदारद है। इसलिए एक तरफ जश्न है और दूसरी तरफ सन्नाटा। विविधताओं और विचित्रताओं के देश में स्वाद का यह अंतर स्वाभाविक ही है। लेकिन फिर भी मुझे कन्नड़ फिल्म के सितारों से रश्क हो रहा था, उन्हें मिल रही दर्शकों की महोब्बत पर मैं भी निसार था। सच है कोई प्रेम करे तो इस जुनून और दीवानगी के साथ ही करे, वरना क्यों करे।