
रिश्तों का तानाबाना वैसे भी बड़ा पेचीदा होता है। समझ नहीं आता इमोशन का कोई धागा कहां और कैसे जुड़ता है कि दो लोग करीब हो जाते हैं। कई दफे उल्टा भी होता है कि कोई पास होकर भी दूर ही रहता है। लिहाजा रिश्तों की इन गलबहियों में नियमों की कोई घेराबंदी नहीं चलती। फिर भी, रिश्ते जैसे भी होते हैं, होते बड़े खूबसूरत हैं।
एक पल के लिए कोई ऐसे वैक्यूम क्लीनर की कल्पना कीजिए, जो आपकी जिंदगी से सारे रिश्ते सोख ले। अब सोचिए बचेगा क्या। इस भरी दुनिया में बिना पत्तों, फल, फूल और परिंदों के किसी ठूंठ की तरह अकेले खड़े नजर आएंगे। बाहर-भीतर एकदम खाली, घनघोर निर्वात में, जहां सांस के आने-जाने और धडक़नों के चलने के अतिरिक्त शायद ही कोई ध्वनि सुनाई पड़े।
तो यह तय रहा कि रिश्ते हैं तो जिंदगी में खुशबू है, रवानी है। सिर्फ जिंदा होने और जिंदगी जीने के बीच के फासले में अगर कुछ है तो वे रिश्ते ही हैं। सारे झमेलों की जड़ या यूं कहें तो जिंदगी की गाड़ी किसी भी रास्ते पर चले, उसके पहिये इन्हीं रिश्तों के बने होते हैं। ये ही उम्रभर आपको आगे-पीछे, दाएं-बाएं लाते-ले जाते हैं।
इसलिए किसी रिश्ते की खातिर यदि कोई पूरा दिन भूखा रहे, प्यास को जब्त कर बैठा रहे। चांद को पूजे और फिर उसी के हाथ से निवाला लेकर अपने रोम-रोम में उस स्नेह को महसूस करे तो सच में यह रिश्तों की जमा पूंजी पर हर बरस चक्रवर्ती ब्याज के मिलने जैसा है। आप कितना भी इसे पोंगा पंडितपना बताएं, लेकिन महसूस करके देखेंगे तो पाएंगे कि किसी की जिंदगी में स्नेह के अंकुर को शुभकामनाओं का खाद-पानी देने का यह कितना अनूठा तरीका है।
मैं जानता हूं कि संसार का कोई विज्ञान इसे साबित नहीं कर सकता कि मैं किसी के लिए भूखा रहूं और उसकी उम्र बढ़ जाए। चांद को देखकर लोटे से पानी उंडेल दिया जाए और किसी की राह की सारी मुश्किलें दूर हो जाएं। लेकिन सच यही है कि जो कहीं नहीं हो सकता, वह प्रेम में हो सकता है। प्रेम शास्त्र वहीं से शुरू होता है, जहां सारे विज्ञान और तर्क घुटने टेक देते हैं।
और नहीं तो क्या। कभी सोचकर देखा है कि वह कौन सी ताकत है, जो पीढिय़ों से लोगों को एक-दूसरे से जोड़े हुए है। दुनिया में किसी को बर्दाश्त करना कितना मुश्किल है और यहां तमाम पसंद-नापसंद और मत भिन्नताओं के बावजूद कोई रिश्ता है, जो जिंदगी की फुलवारी में महकता रहता है। लड़ते हैं-झगड़ते हैं, वक्त-बेवक्त एक-दूसरे के लिए मुसीबतें भी खड़ी करते हैं, लेकिन फिर भी साथ होते हैं।
जब एक-दूसरे का हाथ थामते हैं तो फिर इर्द-गिर्द के सारे कोलाहल शांत हो जाते हैं। लगातार घूमती धरती कम से कम उनके लिए तो थम ही जाती है। रुक जाती है चांदनी ठिठक कर, पेड़ पर बैठे परिंदे भी उन्हीं लम्हों में डूब जाते हैं। बाहर कोई भी ऋतु हो, दोनों के अंतर में मधुमास छा जाता है।
आप देते रहिये जमाने के तर्क कि स्त्री को गुलाम बनाने के लिए रची गई हैं, ये सारी परंपराएं। धार्मिक ढकोसलों की आड़ में बोझ डाल रखा है उस पर ताकि सिर झुकाकर सहती रहे सबकुछ और उफ भी न करे। काहे का उपवास और कैसा करवा चौथ। पुरुषों से क्यों नहीं कराते जनाब, क्या उन्हें अच्छी और यही पत्नी नहीं चाहिए। और वह है कि इन सबको परे धकेल कर इन परंपराओं को निभाती चली जाती है। जो बचपन से दो पल भी भूखी नहीं रही हो, वह भी पूरा दिन उपवास करती है।
प्रेम इसी का नाम है, जो सारी पीड़ाएं स्वीकार करके भी किसी का मंगल करना सीखाता है। ये परंपराएं इसी तरह हमारी जड़ों में प्रेम का अमृत सिंचती है। यह ठीक है, कुछ लोग गलत हैं, जो इन परंपराओं का बेजा इस्तेमाल करते हैं, उनकी अकल ठिकाने जरूर लगाना चाहिए, लेकिन शरद ऋतु में चतुर्थी के चंद्रमा की दूधिया रोशनी में अपने प्रेम की लंबी उम्र की दुआ करना स्नेह के इस अनूठे रिश्ते में नए रंग भरना है।
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