सुप्रीम कोर्ट ने अदालत की कार्रवाई का सीधा प्रसारण करने की इजाजत दे दी है। तब से सोच में डूबा हूं कि इन कैमरों को अदालत में क्या देखने को मिलेगा। संसद का सीधा प्रसारण शुरू होने के इन 29 वर्षों में नेताओं के ऐसे-ऐसे रूप देश की जनता ने देख लिए हैं कि अधिकतर आबादी का उनसे भरोसा उठ चुका है। समझ नहीं आ रहा कि यह कैमरा जब अदालत की चहारदीवारी में पहुंचेगा तो हमारे सामने क्या लेकर आएगा।
कुछ दृश्य हैं, जो गाहे-बगाहे अदालत जाने वाले लोगों की आंखों से भी गुजरे होंगे। क्या होगा जब वे सार्वजनिक होंगे। मुझे याद है कि दोस्त के साथ लूट की एफआईआर दर्ज कराने की वजह से गवाही देने जाना पड़ा था। बाहर बेंच पर घंटों बारी का इंतजार करता रहा। उस दौरान बार-बार यही देख रहा था वकील आते और बाहर रामलाल वकील साब हाजिर है, कहने वाले से हाथ मिलाते हुए निकल जाते। कर्मचारी खुशी से हाथ दबवाता। उसकी आंखें चमकती और वह कुछ देर बाद हाथों को जेब की गरमी देकर बाहर निकाल लेता। हर थोड़ी देर बाद यही दृश्य आंखों के आगे से गुजरता।
फिर एक अन्य मामले में जाने का मौका मिला। कुछ तैयारियां कम थीं तो से अगली तारीख लेना थी। वकील से बात हुई, उसने कहा इसमें क्या है। मैंने कहा, पिछली बात जज साब नाराज हुए थे। कहा था अगली तारीख पर जरूर कागज पेश कर दीजिएगा, दिक्कत तो नहीं आएगी। वे बोले, साब तक बात जाएगी तब ही तो ना। मैंने देखा साहब के सामने वकील साब बाबू साहब से मिले। वैसे हाथ दबाया, मिलाया और हंसते हुए बाहर आ गए। मुझसे कहने लगे, तीन महीने तक चिंता करने की जरूरत नहीं है। बस इस बीच कागज निकलवा लेना। मैंने संदेह जताया कि हाथ मिलाने की जरूरत क्यों पड़ी,तो कहने लगे हां यहां तो जरूरत थी भी नहीं। दिनभर का हिसाब शाम को बाहर भी हो सकता है।
रिपोर्टिंग के दौरान के भी कुछ किस्से हैं। मैंने देखा बड़े वकील साहबों के साथ कैसे सहयोगियों की फौज आती है। वे जैसे पूरी अदालत को घेर कर खड़े हो जाते हैं। साथ में सुंदर, सुशील और दर्शनीय साथी भी होती हैं। सब कागज-पत्तर पेश करते हैं, बात रखते हैं। वे नजरों से काम लेती हैं। सामने खड़ा सरकारी वकील और उसके गवाहों से लेकर कागज-पत्तर तक उनका लाव-लश्कर देखकर ही ठिठुर जाते हैं। एक से बढक़र एक तीरों से बिंधकर घिघयाने के सिवाय कुछ नहीं कर पाते हैं। हाथ तो उसका भी दबता होगा, मिलता ही होगा। फर्क सिर्फ इतना है कि उसे यह सब भीतर करने की जरूरत नहीं पड़ती होगी।
एक पुराने बाबू कहते ही थे, यहां की एक-एक ईंट से आवाज आती है। उसके हाथ भी हैं, जेब भी हैं। सब फैलती हैं, पसरती हैं और कुछ न कुछ लेकर ही चुप होती है। एक सरकारी वकील साहब ने कभी अपनी ईमानदारी का सबूत देते हुए कहा भी था कि आज मैंने बड़े साहब को कह दिया, अपने राम ने कभी किसी से कुछ मांगा नहीं। लेकिन किसी का काम हुआ और उसने अक्षत-कूंकू लगाकर सवा रुपया नारियल दे दिया तो अपन ने कभी मना भी नहीं किया। यह कहकर उन्होंने जोर से ठहाका लगाया था, उसकी गूंज अब तक कानों में सुनाई देती है।
सोचता हूं कि क्या कैमरे तक यह सब पहुंच पाएगा। पहुंचेगा तो क्या देश देखेगा और देखेगा तो उसका क्या नतीजा निकलेगा। क्योंकि संसद के पुराने अनुभव हमारे सामने हैं। वह 20 दिसंबर 1989 का दिन था, जब संसद की प्रमुख कार्रवाई का प्रसारण दूरदर्शन पर शुरू हुआ था। उसी दौर में हमने देखा कैसे नरसिंहा राव कार्रवाई के दौरान सो जाते थे। बाद में उन्हें इसके लिए सफाई भी देना पड़ी कि आंखों में कुछ परेशानी है, इसलिए ऐसा लगता है। देश का प्रधानमंत्री हमेशा जागता रहता है। उन्हीं कैमरों से हमने अटलजी को दहाड़ते देखा है। आज उन्होंने कौन सा सवाल उठाया, क्या दलील दी, क्या धारा प्रवाह भाषण था। मौन मनमोहनसिंह को भी सुना और सोमनाथ दा, जिन्होंने लोकसभा टीवी शुरू कराया, उनके कद का अहसास भी किया। इन्हीं कैमरों से संसद को कॉमेडी नाइट में बदलते भी देखा है। गले मिलने से आंखों के इशारों तक को सहा है।
मानता हूं कि सीधे प्रसारण जनता को जागरूक और नेताओं को जिम्मेदार बनाने की भरसक कोशिश की है। हालांकि किसी का चाल, चरित्र और चेहरा बदलना इतना आसान नहीं है। फिर भी उम्मीद करता हूं कि यही कैमरा जब अदालत में पहुंचेगा तो पारदर्शिता के साथ आम जनता में अदालतों का सम्मान बढ़ेगा। संसद की तरह चौराहे पर नहीं आ जाएगा।
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