कोई 10-12 वर्ष पहले गुजरात के एक अखबार ने नवरात्रि के दौरान एक श्रृंखला प्रकाशित की थी। इसमें एक लडक़ा और लडक़ी की कहानी थी, जो गरबा पंडाल में मिलते हैं। वे रोज एक-दूसरे के साथ गरबा खेलते हैं और धीरे-धीरे करीब आते जाते हैं। लडक़ा कंडोम लेकर आता है। गरबा खेलते वक्त वह उसकी जेब में रहता है। वह चाहता है कि गरबे के बाद लडक़ी को कहीं लेकर जाएगा। वह दो-तीन बार कोशिश भी करता है, लेकिन किसी न किसी बहाने टलता जाता है। दोनों गरबे में ही रमे रहते हैं। कंडोम लडक़े की जेब में वैसे ही रखा रह जाता है और नवरात्रि खत्म हो जाती है। अखबार ने इसके आगे नहीं बताया कि क्या पंडालों के बाद भी वे दोनों मिलते रहे और उनके साथ आगे क्या हुआ। आगे समाज ने जोड़ा, कुछ किस्से, कुछ कहानियां और गल्प भी।
फिर इस बारे में कुछ स्टडी भी आईं, जिनमें दावा किया गया कि नवरात्रि के बाद गुजरात में बड़ी संख्या में अवैध गर्भपात होते हैं। दावे इस हद तक भी कि वर्षभर में होने वाले कुल गर्भपात से कई गुना अधिक इस अवधि में ही होते हैं। इस आधार पर गरबों को लेकर कई तरह के प्रलाप चले। बातों में भी झन्नाट मिर्च-मसाले के शौकीन हमारे समाज में यहां तक किस्से उडऩे लगे कि घर में चार लोग हैं। गरबे के लिए चारों निकलते हैं, पिता अलग, मां अलग और बेटा-बेटी अलग-अलग साथियों के साथ होते हैं।
यहां तक भी कि सारी होटल्स इस दौरान खाली रखी जाती है। सामान्यत: किसी और गेस्ट को कमरे नहीं दिए जाते। रात को 10-11 बजे बाद खाने-पीने का सामान लेकर कपल्स आते हैं। मुंहमांगा पैसा देते हैं और सुबह 3-4 बजे लौट जाते हैं। इस दौरान होटल्स की इतनी कमाई हो जाती है कि नवरात्रि में ही उनकी दिवाली मन जाती है। होटल मालिक से लेकर वेटर तक खुश रहते हैं, क्योंकि गोपनीयता बनाए रखने के लिए इन सब को भी पर्याप्त खुश किया जाता है।
इन कहानियों से लेकर मैनफोर्स के विज्ञापन तक सब मिलकर एक ही दृश्य बनाते हैं कि गरबा सिर्फ नाम का उत्सव है, असल में तो वह अनैतिक और अवैध संबंधों का जश्न है। जहां लोग जाते ही सिर्फ इस बहाने से ही हैं। हालांकि इन कहानियों को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता। हां, कुछ मामले तो ऐसे रहे ही होंगे, जिन्होंने इस आग को हवा दी, लेकिन क्या सच यही है। चूंकि इन कहानियों के केंद्र में युवा और सेक्स था। इसलिए इन्हीं सुनाने वाली जुबानें ज्यादा ही लंबी और चौड़ी होने वाली आंखें बहुत ज्यादा चौंकती थी।
मुझे भी एक बार गुजरात के गरबे देखने का मौका मिला। दाहोद के अलग-अलग पंडाल में गरबे देखे। एक दृश्य कभी भूल नहीं पाता। मेरे सामने स्कूटर पर एक परिवार आया। पति-पत्नी और छोटा बच्चा। पत्नी पूरी तरह गरबे के रंग में थी और पति सामान्य लिबास में। पत्नी आते ही गरबा पंडाल में कूद पड़ी और पति बच्चे के साथ स्कूटर के पास खड़ा रहा। शुरू-शुरू में वह बच्चे को दिखाता रहा जब भी गोल घेरे में मां गरबा करते हुए उनके सामने से गुजरती। धीरे-धीरे बच्चे को नींद आ गई और पति कांधों पर उसे थपकियां देता रहा, मां गरबा खेलती रही।
कहने मतलब सिर्फ इतना है कि दृश्य वही नहीं है, जो दिखाया या सुनाया जा रहा है। इसके पीछे वही पारंपरिक मानसिकता है, जो लडक़ी हंसी तो फंसी जैसे जुमलों के साथ जीती और मजबूत होती है। लडक़ा-लडक़ी साथ होते हैं तो उनका करीब आना स्वाभाविक हो सकता है, जरूरी नहीं कि वह समीपता बिस्तर तक पहुंचे ही। चूंकि केंद्र में युवा और सेक्स है, इसलिए यह सभी के लिए बिकाऊ माल है। बिक रहा है, इसलिए सब इसी को बेच रहे हैं। बड़े-बड़े पंडालों में करोड़ों के स्पांसर इस बात की गवाही है कि गरबा गुजरात का एक बड़ा उद्योग है और उसे चलाए रखने, बनाए रखने के लिए आस्था से ज्यादा सेक्स क्ंिवदंतियां बिकती हैं तो वे लोग उसे ही बेच रहे हैं।
फर्क तो हमें समझना होगा कि उत्सव को दूषित करने की इस कोशिश पर कैसे लगाम लगाई जाए। क्योंकि यह सब इतनी बार बोला जा चुका है कि कोई गरबा पंडालों के बाहर कंडोम के नि:शुल्क पैकेट बांटने पहुंच जाए तो अतिश्योक्ति नहीं लगना चाहिए। और इस बार हुआ भी वही। ऐसे ही तो मानसिकताएं बनाई जाती हैं या सच कहें तो बिगाड़ी जाती है। हमें ही इन्हें समझाना होगा कि प्रेम का मतलब सिर्फ कंडोम नहीं होता है।
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प्रेम का मतलब सिर्फ कंडोम नहीं
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