सावन का पहला दिन, पहला सोमवार और महाकाल की पहली सवारी। भगवान चलकर घर-द्वार तक आए तो सारे कष्ट खुद ब खुद दूर हो गए। आंसुओं के साथ पूरे वर्ष की खरोंचे बह गईं। भक्त और भगवान एकाकार हुए तो क्षणभर में मन का सारा बोझ उतर गया। न सिर्फ जीव बल्कि आसपास की तमाम वस्तुएं दु:ख और पीड़ा के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हो कर आनंद के आकाश से जा मिलीं। मंदिर से बाहर भूतभावन के चरण पड़ते ही उज्जैन गर्व से फूल गया, श्रद्धा से झुका तो स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा की ओर एक और कदम चल पड़ा। आनंद का यह सावन अब भादौ के दूसरे सप्ताह तक उज्जैन को सृष्टि में भक्ति का केंद्र बनाए रखेगा।
भारतीय दर्शन में मोक्ष ही जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है। मोक्ष यानी ईश्वर में एकाकार होकर जन्म-मरण के क्रम से मुक्ति पा जाना, शून्य में विलीन हो जाना। परम ऊर्जा में समाहित हो जाना। उस परम लक्ष्य को हासिल करने के तमाम रास्ते हमारे शास्त्रों में बताए गए हैं। महाकाल सवारी में भी एक क्षण ऐसा आता है, जब मुक्ति की अनुभूति अपने चरम पर होती है। वह क्षण होता है, जब भक्त और भगवान दोनों एक-दूसरे के सामने होते हैं। आंखें खोले रहें या बंद कर लें, कोई फर्क नहीं पड़ता।
मन की देहरी के बाहर जब महाकाल साक्षात उपस्थित होते हैं, तो सारे कपाट खुल जाते हैं। उस क्षण में न कोई सुख होता है, न दुख होता है। यहां तक कि क्षण के शतांश हिस्से में भक्ति की ऐसी तेज लहर आती है कि खुद का अस्तित्व भी तिरोहित हो जाता है। वही क्षण मुक्ति की झलक दिखा देता है। भक्ति सारे सांसारिक आकर्षणों से क्षण भर में मुक्त कर देती है। जब भक्त का अस्तित्व भगवान की उपस्थिति में समाहित हो जाता है, तब और कुछ बाकी नहीं रह जाता। वह अपलक क्षण सबकुछ दे जाता है। सुई की नोक के बराबर या उससे भी सूक्ष्म अनुभूूति ऐसा रस भर देती है कि सालों-साल बार-बार भक्त अपना मन बुहारकर आत्मा का दीप जलाए महाकाल के फिर मंदिर से बाहर आने की प्रतीक्षा करता है।
सारे ढोल-ढमाके, झांझ-मंजिरे, शंख और करताल उसी क्षण का उत्सव मनाते नजर आते हैं। सारी ध्वनियां मिलकर भक्ति का स्वर प्रकट करती हैं। गगनभेदी जयकारे कानों में पडऩे वाली सारी आवाजों को बेअसर कर देती है। अच्छी-बुरी स्मृतियां मन की अतल गहराइयों में दुबक जाती हैं। और जब आंखों के आगे छवि प्रकट होती है, तो मन से लेकर आत्मा तक प्रतिबिम्ब अंकित हो उठता है। भक्ति का प्रकाश फैलता है जो आनंद से सराबोर कर देता है।
उस एक क्षण में और कुछ नहीं होता है, बाहर से भीतर तक सिर्फ महाकाल होते हैं। जो लोग उस क्षण को सहेज लेते हैं वे मुक्ति की राह पर एक कदम और बढ़ जाते हैं और जो मन की देहरी तक भी उसे महसूस कर पाते हैं, उनके मन में आनंद का झरना फूट पड़ता है और ऐसी लगन जाती है कि हर सवारी उनके पैर खुद ब खुद उन्हें महाकाल के सामने लाकर खड़ा कर देते हैं। भक्ति रस एक बार चख लिया तो फिर वह तब तक उसकी पुनरावृत्ति की आस लगाए रहता है जब तक कि ईश्वर से एकाकार न हो जाए।
इसलिए सारे भक्त तरह-तरह की वेशभुषाओं में उस क्षण की प्रतीक्षा करते नजर आते हैं। उनके लिए चंदन व भस्म तिलक, गुलाल, भगवा वस्त्र, फूलमालाएं माध्यम बन जाती हैं, पुकार लगाती हैं कि भगवन बाहर से मैंने यथाशक्ति सब रंग लिया है, अब आप मेरे भीतर का इंद्रधनुष बन जाओ। जिसकी जितनी तैयारी होती है, महाकाल उस पर उतना ही भक्ति रस उड़ेल देते हैं। जो उस क्षण का भीतर स्थाई घर बनाने में कामयाब हो जाते हैं, उनके लिए फिर कुछ भी यथेष्ट और अभिष्ट नहीं रह जाता है।
सारी दूरियां मिट जाती हैं, सारे प्रपंच खत्म हो जाते हैं। यही मुक्ति है, इसे मोक्ष कहा गया है जो सवारी के दौरान महाकाल की राह बुहारती नजर आती है।
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जमीन से दो फीट ऊपर हो गया उज्जैन
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