उज्जैन के रोम-रोम में आज महाकाल समाए हुए हैं। लोगों की चहलकदमी के साथ हर गली, मोहल्ले से चुनिंदा स्वर ही सुनाई दे रहे थे, सवारी मार्ग कहां है या इस चौराहे पर सवारी कितनी बजे आएगी। लोग संकरी गलियों से भटकते हुए राह खोज रहे थे। कोई छज्जों पर चढ़ा हुआ था तो कोई बालकनी से लटका हुआ। ऊंचे बैरिकेड्स पर भी लोग जमे हुए थे। मन, प्राण तक में एक ही अभिलाषा प्रकम्पित हो रही थी कि कैसे भी भूतभावन की बस एक झलक मिल जाए। शाही लवाजमे के साथ बाबा महाकाल जब मंदिर से निकले तो लाखों आंखों के लिए वक्त थम गया।
महाकाल की शाही सवारी उज्जैन का एक ऐसा उत्सव है, जो हर बरस आस्था के नए द्वार खोलता है। भक्ति में डूबे लोगों को पूरे दिन जैसे किसी और बात कोई होश नहीं होता है। हवाओं में सिर्फ सवारी ही तैरती रहती है। शहर के कण-कण से लेकर लोगों के रोम-रोम तक में सिर्फ महाकाल गुम्फित होते रहते हैं। पूरा शहर जैसे आंख में तब्दील हो जाता है। जिसकी पलकें भी इस डर से झपकना नहीं चाहती कि कहीं इसी बीच ही महाकाल आंखों के आगे से निकल न जाएं। पिपासा ऐसी कि एक चौराहे पर दर्शन होते ही भीड़ अगले चौराहे की ओर दौड़ पड़ती है। खुसपुसाहट होने लगती है कि रामघाट से भगवान चल दिए हैं तो अब ढाबा रोड पर ही दोबारा भेंट हो सकेगी, बीच के चौराहों पर रुकने से अच्छा छत्री चौक चले जाते हैं। कंठाल तक आने में भी अभी वक्त लगेगा।
लोग बिना किसी शिकन के धक्के खाते हैं, पुलिस और व्यवस्था में लगे कर्मचारियों की झिडक़ी सहते हैं। राह के कंकड़-पत्थर से लोहा लेते हैं। लाख हिदायतें जानते हैं कि छोटे बच्चों को भीड़ में ले जाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है, लेकिन बावजूद इसके खुद को रोक नहीं पाते। बच्चों की अंगुलियां थामे निकल पड़ते हैं, दर्शन के लिए उन्हें कांधों पर बैठाते हैं। उनसे भी जयकारे लगवाते हैं। उनके अंतर में भी भक्ति का बीज रोपते हैं। वे भीड़ देखकर नाक-मुंह सिंकोड़ते हैं तो उन्हें समझाते हैं कि भगवान के दर्शनों के लिए ये कष्ट तो कुछ भी नहीं हैं।
और जिस क्षण भगवान आंखों के सामने होते हैं, उस वक्त तो जैसे किसी को होश ही नहीं रहता। किसी के आंसू छलछला उठते हैं तो कोई भाव-विभोर होकर जयकारा लगाने लगता है। दोनों हाथ कब जुड़़ते हैं, कब आंखें जम जाती हैं, कब होंठ बुदबुदाते हैं, कोई अंदाजा नहीं रहता। ऐसा लगता है जैसे शरीर और प्राण अलग हो गए हैं। शरीर यंत्रवत खड़ा है और प्राण महाकाल के चरणों में जा पहुंचे हैं। सांसों और धडक़नों से महाकाल की वंदना कर रहा है कि प्रभु सबकुछ आपका है और आप ही को समर्पित है। इसलिए शरीर भले लौट जाना चाहे, लेकिन मन और प्राण तो जैसे सवारी के पीछे ही चलना चाहते हैं। एक क्षण को भी अलग नहीं होना चाहते। इसलिए दर्शन के बाद भी प्यास बुझने के बजाय और बढ़ जाती है।
और जो लोग सवारी में शामिल हैं उनके तो कहने ही क्या। जैसे पूरी दुनिया की दौलत उनके हाथ लग गई है। भजन मंडलियों से लेकर बैंड-बाजों वालों तक में कोई अलौकिक शक्ति जाग उठी है। ऊर्जा का कोई स्रोत फूट पड़ा है। सिर से कोई भक्ति की गंगा निकल आई है, जिसने सबकुछ तिरोहित कर दिया है। अगर कुछ बाकी है तो हाथ-पैर का लय और महाकाल के स्वर। उनके हाथों के हर वाद्य से सिर्फ महाकाल तरंगित होते हैं। वे घंटों एक ही मुद्रा में पैदल चलते रहते हैं। उस वक्त कोई होश नहीं रहता, बाहर-भीतर सिर्फ महाकाल होते हैं। यह ख्वाहिश पता नहीं जन्म लेने के लिए जगह पाती होगी या नहीं कि बस जीवन यही यात्रा बनकर रह जाए। वे ऐसे चलते रहें बस चलते रहें।
इन सबके बीच एक बड़ा समूह और है। एक वे जो नौकरी के कारण सेवा में लगे होते हैं, उन्हें लगता है कि पूरे साल इस नौकरी में बने रहने का असली फल आज मिला है। कई लोग जो गली-गली में फैले रहते हैं, दर्शन के लिए आने वाले लोगों के लिए पानी, शरबत आदि का इंतजाम करते हैं, वे । लोग दर्शनार्थियों की आंखों और मन की श्रद्धा में ही महाकाल के दर्शन करते हैं। उनके लिए हर चेहरे से ही महाकाल झांकने लगते हैं।
भक्ति के इस अनूठे उत्सव को देखकर लगता है कि ज्ञानमार्गी कितने परिश्रम के बाद खुद को ध्यान की इस अवस्था तक ला पाते होंगे, जिसे महाकाल की सवारी सहजता से भक्तों को उपलब्ध करा देती है।