यह तो स्थापित है कि कोई भी हमेशा के लिए नहीं होता। जो होता है, वह एक दिन नहीं होता है। इसलिए बापू का न होना अवश्यंभावी था। उनके न होने में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। कुछ अस्वाभाविक है तो यह कि उनकी वजह से बना रिक्त स्थान, जो अब वहां नहीं है, बल्कि लगातार फैलता जा रहा है। आप रोजमर्रा की जिंदगी में उस निर्वात को महसूस कर सकते हैं कि बापू नहीं है।
ये अजीब सी उल्टबांसी हैं। आप कह सकते हैं कि बापू के सारे हथियार आज आम आदमी (पार्टी नहीं) के हथियार बने हुए हैं। जितने आंदोलन बापू के समय होते थे, उससे कहीं ज्यादा प्रदर्शन अब होते हैं। लोग चुप नहीं बैठे हैं, अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं। सही है, लोग मुखर हुए हैं, लेकिन इनमें कितने धरना-प्रदर्शन और आंदोलन हैं, जो सामूहिक हित के लिए हो रहे हैं। एक-दूसरे को नीचा दिखाने, पटखनी देने, धूल चटाने की सियासी साजिशों से परे हैं। जो आंदोलन विशुद्ध रूप से जनता की पीड़ा की अभिव्यक्ति हैं, उनका हश्र क्या है। वे मुद्दे कहां हवा में उड़ा दिए जाते हैं, पता ही नहीं चलता। आप ढूंढते रह जाते हैं।
रोहित वैमुला, नजीब जंग को भूल भी जाएं तो कश्मीरी पंडित, किसानों की आत्महत्या, एसिड अटैक, महिलाओं से छेड़छाड़, सरकारी स्कूल और अस्पतालों की स्थिति, कुपोषण, भिक्षावृत्ति जैसे तमाम मुद्दों पर सियासी असंवेदनशीलता पूरे देश को ही उस निर्वात में ले जाकर खड़ा कर देती है।
बापू का दूसरा हथियार खादी और चरखा। दोनों पर खूब राजनीति होती है। खादी ग्रामोद्योग है, जिसमें मंत्री के दर्जे का अध्यक्ष होता है। जो लोग चुनाव का दंगल जीत नहीं पाते हैं या किसी और राजनीतिक मजबूरी के कारण उपकृत नहीं हो पाते हैं, उनकी यहां ताजपोशी कर दी जाती है। लालबत्ती, बंगला, नौकर-चाकर और बजट देकर खंडित मूर्ति की पुनर्स्थापना कर दी जाती है। दो-चार उद्घाटन, विमोचन करा लिए जाते हैं। खादी को बढ़ावा देने के लिए बड़े-बड़े मेले लगते हैं, एम्पोरियम बनाए गए हैं। बापू की जयंती और अन्य राष्ट्रीय महत्व के अवसरों पर डिस्काउंट सेल भी होती है। विदेशों में भी प्रचार किया जाता है। खादी के लिए इतना तामझाम तो बापू भी नहीं कर पाए थे और होते तो शायद नहीं ही कर पाते। इससे ज्यादा क्या उम्मीद करेंगे, लेकिन बापू की खादी बुनकरों को आत्मनिर्भर बनाने का हथियार थी।
ग्रामीणों को स्वरोजगार से जोडऩे की कड़ी था चरखा। वह चरखा तो महिमामंडित हो रहा है, लेकिन उसे चलाने वाले अब भी नंगे बदन भूख से कांपते हैं। चमकदार नियान बल्बों की रोशनी से लदकद शोरूम में इठलाती खादी, बापू की खादी नहीं है। वह बापू की खादी हो ही नहीं सकती। सिर्फ खादी के पोस्टर पर चेहरा ही नहीं बदला है, खादी का स्वरूप भी बदल चुका है।
बापू का स्वेदशी भी, स्वराज का बड़ा मंत्र था। वही स्वेदशी नए रूप में हमारे सामने है। योगगुरु ने उसी मंत्र के आधार पर दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियों को नाको चने चबवा दिए हैं। दांतून से लेकर सौंदर्य प्रसाधन की तमाम सामग्री पर स्वदेशी का दावा है। हजारों करोड़ रुपए का साम्राज्य खड़ा हो गया है। तमाम टीवी चैनल्स पर सबसे बड़े विज्ञापनदाता के रूप में स्वेदशी ही छाया हुआ है। आपको क्या लगता है कि बापू स्वेदशी की इतनी मार्केटिंग कर पाते और इतनी बड़ी सल्तन बना सकते थे? अगर ये सबकुछ हुआ है तो फिर आपत्ति नहीं होना चाहिए, लेकिन हकीकत हम सब के सामने है कि इस स्वदेशी में बाजार तो है, लेकिन बापू का स्वराज नहीं है। इस तरक्की से आम भारतीय की हिस्सेदारी और हक दोनों ही नदारद है।
और दंगे तब भी होते थे, अब भी होते हैं, लेकिन उसके बाद पूरी शुचिता के साथ कोई उपवास पर नहीं बैठता। सभाओं के बाद साडिय़ां बांटी जाती हैं, लेकिन किसी स्त्री को बिना कपड़ों के देखकर कोई अपने वस्त्र नहीं छोड़ता। गांधी के वक्त से ज्यादा उनके मुद्दों पर अब काम हो रहा है, लेकिन उनमें बापू की आत्मा नहीं है। आवाज में वह असर नहीं है। इसलिए गांधी का जाना हमारे लिए जितना दुखद था, उससे कहीं अधिक त्रास्द गांधीपन का विसर्जन है। बहुत अच्छा होता अगर हम इन प्रपंचों के बजाय गांधीपन को जीवित रख पाते।
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