मंदसौर कॉलेज में कुछ लोग घुसते हैं। कक्षाओं के दौरान नारेबाजी करते हैं। विद्यार्थियों को पढ़ा रहे एक प्रोफेसर शोर न करने का आग्रह करते हैं तो पूरी भीड़ उन्हें प्रताडि़त करने लगती है। उन पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगाती है, केस दर्ज कराने की धमकी देती है। उन्हें इस हद तक डराती-धमकाती है कि प्रोफसर को पैर पकडक़र माफी मांगना पड़ती है। घबराकर प्रिंसिपल भी नारे लगाने लगते हैं।
हद तब होती है, जब माफी मंगवाने वाले प्रोफेसर को पागल करार देते हैं। समझना मुश्किल है कि आखिर देशभक्ति के नाम पर ये क्या तमाशा चल रहा है। कुछ वर्ष पहले उज्जैन के माधव कॉलेज में प्रोफेसर सभरवाल की हत्या हुई थी और अब मंदसौर कॉलेज में एक प्रोफेसर के स्वाभिमान व आत्मसम्मान का कत्ल हुआ है।
भारत माता की जय का नारा लगाना ही यदि देशभक्ति है तो फिर हम सारे काम छोडक़र क्यों न वही करने लगते हैं। सीमा पर सैनिक बंदूक छोड़ दें, अस्पतालों में डॉक्टर इलाज बंद कर दें। खेतों में किसान हल चलाना छोड़ दें, प्रतिस्पर्धाओं में खिलाड़ी खेलना बंद कर दें। सब छोडक़र हम सब सिर्फ नारे लगाते हैं, क्योंकि यही देशभक्ति है। इसी से तरक्की होगी। इसी से हम मंगल पर जाएंगे, चांद पर कॉलोनी काटेंगे। भूखों को रोटी और जरूरतमंदों का सहारा बनेंगे।
क्या बैठे हैं, क्यों काम में लगे हैं। छोडि़ए हुजूर देश को इनकी जरूरत नहीं है। देश को सिर्फ नारों की जरूरत है, आइये भीड़ तंत्र का हिस्सा बन जाइये और जोर से भारत माता की जय का नारा लगाइये। ऐसा करते ही भारत माता तत्काल विश्व गुरु के सिंहासन पर विराजमान हो जाएगी। हम विकसित देशोंं की अग्र पांत में जाकर खड़े हो जाएंगे। सारी समस्याओं का निदान हो जाएगा। क्या हुआ जो प्रोफेसर कॉलेज में बच्चों को पढ़ा रहे थे। इससे कौन सी क्रांति आ जाएगी। एक घंटा और पढ़ा लेते तो कौन सा उनके छात्र अल्बर्ट आइंस्टीन के बाप हो जाते।
धिक्कार है, मंदसौर कॉलेज के उन प्रोफेसर दिनेश गुप्ता को, जिन्होंने नारे से ज्यादा छात्रों की पढ़ाई को तरजीह दी। भूल गए कि देशभक्ति ही सर्वोपरि है। राष्ट्र देवता को नारों का भोग लगाए बिना वे बच्चों को पढ़ा भी लेंगे तो उससे क्या हो जाएगा। जानते नहीं क्या कि राष्ट्र को परम वैभव तक ले जाने के लिए पढ़ाई-लिखाई के कोई मायने नहीं है। कक्षाएं जब तक चलेंगी तब तक यूं ही पीढिय़ां बर्बाद होगी। एक अदना सा प्रोफेसर बच्चों को चार किताब पढ़ाकर कर भी क्या लेगा। उन्होंने नारे लगाने से रोक कर देश का सिर शर्म से झुका दिया है।
ये कैसी विडम्बना है, कहां आकर खड़े हो गए हैं हम। एक प्रोफेसर के आत्मसम्मान को सरे राह छलनी किया जाता है। उसके स्वाभिमान को धूल में मिला दिया जाता है और सब बैठकर तमाशा देखते रहते हैं। उसे पागल करार देते हैं। राष्ट्र द्रोह का मुकदमा लगाने की धमकी देते हैं। 30 बरस से मां सरस्वती की उपासना कर रहा प्रोफेसर कर भी क्या सकता था, इससे ज्यादा।
उसने अपने स्वाभिमान की हत्या स्वीकार कर ली। फांसी पर चढ़ा दिया उसे, झुक गया निर्लज्ज भीड़ के सामने। वह दौड़ता रहा एक-एक आदमी के सामने, चीखता रहा कि मैं पढ़ाने का अपराध कर रहा था। आओ किससे माफी मांगना है। गिन-गिनकर एक-एक के पैरों में झुकता रहा। क्योंकि मजबूर है, उसे भी राष्ट्रभक्त ही बने रहना है। इसलिए वह पैर पकड़ लेता है। गुरु द्रोण से लेकर प्रोफेसर सभरवाल तक की आत्मा भी कांप उठती है।
हालांकि इसके बाद भी प्रोफेसर गुप्ता उदारता दिखाते हैं। वे मानते हैं कि वे क्षण उनके लिए मृत्यु के समान थे। 30 बरस से छात्रों को पढ़ा रहे हैं, लेकिन आत्मसम्मान कभी इतना चकनाचूर नहीं हुआ। जो लोग कॉलेज में हंगामा कर रहे थे, वे कॉलेज के छात्र भी नहीं है। बावजूद इसके वे किसी पर कार्रवाई नहीं करना चाहते। शायद इसलिए क्योंकि जानते हैं कि इसका कोई मतलब नहीं है। या इसलिए कि वे कोई बखेड़ा नहीं चाहते। क्या पता राष्ट्रभक्तों की ये फौज उन्हें कल किस राह पर ले जाए।
यह सिर्फ प्रोफेसर गुप्ता ही नहीं हम सबके लिए इस वक्त का सबसे बड़ा सबक है। आइये सब काम छोड़ देते हैं और नारे लगाते हैं। क्योंकि नारे लगाना ही असली देशभक्ति है।
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