जब आप किसी नदी के साथ जीते हैं तो वह आपके भीतर जीने लगती है। आपके मन को द्रवित और प्रवाहमान कर देती है। नदी का साथ अथक परिश्रम और अपार ऊर्जा से भर देता है। तटबंध सिर्फ तन को ठंडक नहीं देते मन और आत्मा को भी पनीला कर देते हैं। मन पर लगी जो रगड़ बरसों बरस नहीं मिटती, वह नदी के सामीप्य से चंद मिनटों में धुल सकती है। क्योंकि नदी ही है, जो अपने साथ बहते उबड़-खाबड़ पत्थरों को भी गोल कर देती है। फिर वे बढ़ते जाते हैं, बहते जाते हैं, शिकायत नहीं करते, शरारत नहीं करते और जब गोलाई पूर्ण हो जाती है तो पूजे जाते हैं। सिर-आंखों पर बैठाए जाते हैं। जो नदी पत्थर को पूजित कर सकती है, कल्पना भी मुश्किल है कि वह इंसान को कहां ले जा सकती है।
नदी से मेरी मित्रता ठेठ बचपन में हुई। ननिहाल धामनोद है, जहां से महज 6-8 किमी दूर मां नर्मदा अपने पूरे स्नेह सामथ्र्य से बहती है। उसी घाट पर मैंने भी पहली बार डुबकी लगाकर नदी की ममता को महसूस किया था। आसपास अन्य बच्चों को निर्भीकता से उछल-कूद मचाते, महिलाओं को कपड़े कुटते, आपस में बतियाते हुए देखा था। शाम ढले किनारे पर कुछ लोगों को अकेले तो किसी को दोस्त-यार के साथ बैठे पाया था। नदी कैसे उनके चेहरों पर निश्चिंतता लाती थी, यह अब महसूस होता है। नदी के साथ कभी किसी को अकेले नहीं देखा, नदी हर किसी से उसके तल पर मिलती और इस कदर घुल-मिल जाती कि उसे अलग कर पाना मुश्किल होता।
मैं नर्मदा से जुड़े सैकड़ों किस्सों के बीच ही बड़ा हुआ हूं। 20-25 बरस पुरानी बात है, जब मैंने सुना था कि मामाजी के करीब मित्र अपने खेत तक नर्मदा से पाइप-लाइन लेकर आए हैं। सात किमी लंबी पाइप लाइन पर उस वक्त भी कोई पांच लाख रुपए खर्च हुए थे। मैं विस्मित हो गया था, यह सोचकर कि खेत नदी के पास नहीं जा सकते तो नदी को खेत के पास ले आया गया है। नदी और खेत की यह दोस्ती उस क्षेत्र के कई किसानों की समृद्धि का प्रतीक बन गई।
कपास की गाडिय़ां लेकर खिलखिलाते किसान जब घर के आगे से गुजरते तो मुझे उनके चेहरे पर नर्मदा ही बहती नजर आती थी। कपास, गन्ना और केले के खेतों में हर जगह नर्मदा की उपस्थिति महसूस होती थी। गर्र्मियों के दिनों में खलघाट के पुल के नीचे बन जाने वाले भारत का नक्शे में मुझे नर्मदा के सामथ्र्य का अहसास करता था कि कैसे नर्मदा पूरे देश के गौरव को भीतर सहेजे हुए हैं। या यूं भी कह सकते हैं कि नर्मदा के भीतर पूरे देश को समा लेने की शक्ति है, उसे सामथ्र्यवान, समृद्ध और सशक्त बनाने की ऊर्जा है।
घर आने वाले भिक्षुकों को भी देखा, जो मां मगर पर बैठीं मां नर्मदा की तस्वीर साथ लेकर आते थे। सफेद कपड़े में तुलसी की माला धारण कर सिर पर चंदन का टीका लगाए महिला-पुरुष लगातार आते रहते। उनके ज्यादातर नर्मदा परिक्रमा पर निकले यात्री होते थे। उनके साथ मैं भी कई बार कल्पनाओं में नर्मदा की यात्रा करता था। सोचता था नर्मदा को उसकी समग्रता में महसूस कर पाना कितना अद्भूत होता होगा। रास्ते के पहाड़, मैदान, खेत-खलिहान और बस्तियों में नर्मदा की मौजदूगी आनंद के स्थाई भाव की तरह नजर आती होगी। तटबंधों के दोनों और कई किमी दूर तक हर कहीं नर्मदा के प्रतिबिम्ब को महसूस करना कितने आनंद से भर देता होगा।
लगता था ये सारी बस्तियां वास्तव में नर्मदा की संतती है, उसी के वशंज हैं, जो उसके आंचल में जिंदगी को महोत्सव की तरह जी रहे हैं। खुश हुए तो किनारे पर उत्सव मनाने जा पहुंचे। दु:खी हुए तो उसी तट पर जाकर अपने आंसुओं को मां के हवाले कर दिया। नर्मदा उनकी स्मृतियों से लेकर भविष्य की कल्पनाओं तक को सींच रही हैं। मैंने भी अपने परिवार के तीन बड़ों को नर्मदा के तट पर ही पंच तत्व में विलीन होते देखा है। अब भी घाट पर जाता हूं तो मुझे वे क्षण वहीं हाजिर नजर आते हैं।
महेश्वर के अनुपम और अद्वितीय घाट पर मेरे बच्चों ने भी पहली बार नाव में बैठकर लहरों की सवारी की। मझधार को हाथों में लेकर उसकी धडक़नों को महसूस किया। नदी के समीप जाकर उनके चेहरे पर आई उत्फुल्लता ने मुझे अनूठी निश्चिंतता से भर दिया। मुझे भरोसा हो गया कि उन पलों में नदी से प्रेम के जो बीज उनके मन पर पड़े हैं, वे जरूर उन्हें प्रकृति और खुद के करीब ले जाएंगे।
मैंने मांडू के महल के शीर्ष पर खड़े होकर रूपमति के मन में नर्मदा के प्रति प्रेम की अद्भूत कहानी को महसूस किया है। छोटी उम्र में महल से उचक-उचक कर नर्मदा की रजत रेखा को देखने की कोशिश की है। हालांकि तब मुझे कालीन की तरह रंग-बिरंगे निमाड़ के खेत ही नजर आते थे और मैं गाइड की बातों पर सिर्फ सिर हिला दिया करता था कि ये कह रहे हैं तो यहां से नर्मदा जरूर दिखाई देती होगी। बाज बहादुर का प्रेम, जिसने रूपमति के नर्मदा दर्शन को इतने किमी दूर से संभव बनाया, उसे मैं बहुत बाद में समझ पाया।
उसी नर्मदा की शुद्धिकरण के लिए वृहद योजना की बात आई तो मेरे भीतर ये सारी स्मृतियां पुनर्जीवित हो उठीं। मैं खुद को फिर नर्मदा के घाट पर महसूस कर रहा हूं। कल ही की बात है ना जब केंद्रीय मंत्री अनिल माधव दवे ने यह भरोसा दिलाया कि गंगा की तरह नर्र्मदा शुद्धिकरण के लिए भी बड़ी योजना बनाई जा रही है, जो अगले बजट में आ सकती है। यह सुनने के बाद से मेरा मन नर्मदा की लहरों में उलझा है। यह अहसास वैसा ही है, जैसे दिन-रात बच्चों के लिए भागते-दौड़ती मां के बारे में अचानक कोई खबर आए और आप सोच में पड़ जाएं कि इस भागदौड़ के बीच उसे खुद के लिए भी कुछ समय मिलना चाहिए।
हालांकि नर्मदा पर कई लोग और संस्थाएं काम कर रहे हैं, लेकिन शुद्धिकरण की एक वृहद योजना की दरकार लंबे समय से महसूस की जा रही है। चूंकि गंगा के बनिस्बत नर्मदा की स्थिति बहुत बेहतर है, इसलिए इस वक्त किए गए प्रयासों के सार्थक होने की संभावना बहुत अधिक है। मैं बस पूरे मन से इस योजना के फलिभूत होने की प्रार्थना करना चाहता हूं।
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