कलाकार अकसर दो धु्रवों पर जीते हैं। एक उनका हुनर है और एक वे खुद। जैसे-जैसे कला बड़ी होती है, कलाकार का अस्तित्व उसमें खोने लगता है, लेकिन तिरोहित नहीं होता। कलाकार की जिंदगी पेंडुलम की तरह इन्हीं के बीच डोलती रहती है। कभी कला उनके व्यक्तित्व पर छा जाती है तो कभी व्यक्तित्व कला में गडमड होने लगता है। ओम पुरी इस यात्रा के ऐसे ही मुसाफिर थे, जिनमें हुनर के साथ खुद के होने का संघर्ष साफ नजर आता है।
ओम पुरी से पहला परिचय मनोहर श्याम जोशी की कृति पर आधारित दूरदर्शन के सीरियल कक्काजी कहिन से हुआ। उम्र पहली दहाई पर पहुंची ही थी, इसलिए व्यंग्य की समझ से कोसों दूर था, लेकिन न जाने क्यों सीरियल में जब भी कक्काजी हंसते तो बड़ी घृणा होती। मन में आता, कैसा आदमी है, कभी गिरगिट तो कभी अजगर। खुद का कोई चरित्र ही नहीं है, कुछ है तो सिर्फ अपना मतलब और मकसद। तब से ओम पुरी को लेकर अलग ही भाव बैठ गया मन में। फिर फिल्मों में विलेन के रोल में देखा तो भाव और स्थायी हो गया।
जब भी वे स्क्रीन पर आते मन कसैला हो जाता। चेहरे पर बने चेचक के दाग, उनके व्यक्तित्व के दाग लगने लगते। लेकिन बाद में उन्हें दूसरे किरदारों में देखा तो वे व्यवस्थाओं के प्रति आम आदमी के आक्रोश की सहज अभिव्यक्ति की तरह नजर आए। चेहरे के उन भावों में मन का प्रतिबिंब नजर आने लगा। अब सोचता हूं तो लगता है, अभिनय का यह कैसा जादू था, जो जिस किरदार में सामने आया, उसे ही बालमन पर स्थाई भाव के रूप स्थापित कर दिया। हालांकि उनकी उस हंसी का मतलब तब समझ आया जब समाज में कक्काजी जैसे किरदारों से सामना हुआ। वैसे ही दोमुंहे और मतलब परस्त लोगों को हंसते देखा तो भांपते देर नहीं लगी कि होंठों की इस बाजिगरी के पीछे क्या छुपा है। अंदाजा लगा पाना मुश्किल है कि कला का एक छोटा सा हिस्सा भी कहां तक आपके साथ चलता है।
फिर ओम पुरी अलग-अलग किरदारों में नजर आए। जाने भी दो यारो और अर्धसत्य जैसी कालजयी फिल्मों के इतर भी कई सिनेमाई प्रस्तुतियों में वे पूरी भीड़ से अलग खड़े नजर आते थे, जिनका अपना कोई चेहरा नहीं था, अगर कुछ था तो सिर्फ किरदार। चाइना टाउन में फौजियों की टोली को लेकर जगीरा से लडऩे उतर पड़ते हैं तो चेहरा गवाही देता है कि कैसे फौज में हुई बेइज्जती वहां आकर ठहर गई है और उससे निजात पाने को एक सेवानिवृत्त फौजी कितना व्यग्र है। एक लड़ाके के लिए हार से ज्यादा असहनीय शर्मिंदगी होती है। वह लड़ सकता है, मर सकता है, लेकिन झुक नहीं सकता, अपमान का बोझ नहीं सह सकता।
कॉमेडी के मोर्च पर भी वे उसी सहजता से डटे नजर आते हैं। कॉमिक टाइमिंग का अनूठा नजारा मालामाल वीकली के उस दृश्य में दिखाई देता है, जब ओम पुरी आटे से सने नजर आते हैं। पैर में बर्तन फंसा हुआ है और वे लालबुझक्कड़ के हिरण की तरह चल रहे हैं, नए-नए बहानों से लॉटरी बाबू को बहला रहे हैं। ओम पुरी अपने ऐसे ही दर्जनों किरदारों के रूप में हमेशा हमारे बीच मौजूद रहेंगे। वे विविध किरदारों का ऐसा समुच्चय थे, जिसमें अनगिनत चेहरे और चरित्र स्वाभाविक रूप से नजर आते हैं। जब भी आप उनके बारे में सोचते हैं, ओम पुरी उन्हीं किरदारों में गुम नजर आते हैं।
निजी जिंदगी में पत्नी से विवाह के 26 वर्ष बाद अलगाव, विवादित बयानबाजी, शराब और सिगरेट का धुआं नजर आता है। यह भी एक विडम्बना ही है कि न जाने क्यों ज्यादातर प्रतिभाएं व्यक्तिगत जीवन में आत्मघाती रास्तों पर खड़ी नजर आती हैं। अपने हुनर से समाज में अच्छे-बुरे की समझ विकसित करने वाले कलाकार खुद अपने लिए चुनाव करते समय पता नहीं क्यों गड़बड़ा जाते हैं। हालांकि तमाम विवाद और बयानबाजियां भी ओम पुरी के हुनर में कोई कोहरा नहीं गढ़ पाती हैं। हम जब भी उन्हें याद करेंगे उन किरदारों के लिए ही याद करेंगे, जिनमें हमें समाज के अनगिनत चेहरों का अक्स नजर आता है।
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