देश में धर्म की गंगा बह रही है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जाते हैं। कभी टोपी पहनने से इनकार कर देने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मस्जिद में बैठकर वाअज सुनते हैं। इमाम हुसैन की याद में कसीदे पढ़ते हैं। उनके साथ गुनगुनाते हैं, मन की बात करते हैं। समाज को ढेर सारी योजनाओं का प्रेरणा स्रोत बताने से भी नहीं चूकते। गुजरात चुनाव के समय से ही राहुल मंदिर प्रेमी हो रहे हैं। मोदी का यह बदलाव भी अप्रत्याशित है। ये जादू भले चुनाव का हो, लेकिन फिर भी उम्मीद जगाता है।
क्योंकि देश में धर्म की सियासत चरम पर होने के बाद भी नेता धर्म की वास्तविक शक्ति से परिचित नहीं हैं। मस्जिद में आज की वाअज ही इनके सारे जाले साफ कर सकती है। कहां नेताओं के पास जाने के लिए लोग टूट पड़ते हैं, सियासी कार्यक्रमों में मंच का कचूमर निकाल देते हैं। सरकारी कार्यक्रमों में ज्ञापन, आवेदन देने के लिए लोग मचल जाते हैं। सुरक्षा घेरे तक तोड़ देते हैं, लेकिन यहां ऐसा कुछ नजर नहीं आया। एक व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया, जिसने जरा सा भी अनुशासन भंग किया हो। मस्जिद में बैठक की सीमित व्यवस्था थी। जितने लोगों को अनुमति दी गई थी, वे ही अंदर गए। तय स्थान पर बैठे। किसी दरवाजे पर कोई धक्कामुक्की नहीं हुई। फोटो खींचने, सेल्फी लेने के लिए कोई बेसब्र नहीं हुआ।
वाअज के लिए मस्जिद के बाहर भी स्थान तय किए गए थे। वहां बड़ी एलईडी स्क्रीन पर समाजजन ने वाअज सुनी। किसी ने सवाल नहीं खड़ा किया कि हमें क्यों बैठाया गया है और बाकी अंदर क्यों हैं। कार्यक्रम के पहले और बाद में कहीं किसी तरह की हड़बड़ाहट, घबराहट या जल्दबाजी नहीं दिखाई दी। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के प्रवास के दौरान सुरक्षाकर्मियों की फौज होती है। यहां सब गेट के किनारे पर थे। हथियार ले जाने की इजाजत भी नहीं थी और जरूरत भी महसूस नहीं हुई। एसपीजी से लेकर पूरा प्रशासन एक कोने में तमाशबीन की तरह खड़ा था और सारी व्यवस्था समाज के हाथ में थी। किसी का कोई दखल नहीं था। ये दृश्य भरोसा दिलाता है कि धर्म अब भी लोगों को अनुशासित रखने का सबसे बड़ा माध्यम बन सकता है, बशर्ते सियासत को उससे या तो पूरी तरह दूर रखा जाए या इसी तरह मर्यादा में।
हम चाहते हैं कि सारे सियासी लोग टोपी भी पहने, मंदिर में घंटी भी बजाएं, आरती करें, प्रसाद लें। मोमबत्ती जलाएं और आकर देखें कि ये संस्थान कैसे काम करते हैं। कम से कम इस बहाने वे हमारी साझी संस्कृति और सभ्यता को समझेंगे। उन्हें समझ आएगा कि जिस वसुदेव कुटुम्बकम का नारा वे मंच पर बुलंद करते हैं, उसका वास्तविक अर्थ क्या है। मंदिरों और गुरुद्वारों के अन्नक्षेत्र में कोई नहीं देखता कि भोजन के लिए बैठा व्यक्ति कौन है। ट्रस्ट के अस्पतालों में हर रोज हजारों लोगों नि:शुल्क उपचार पाते हैं, लेकिन कोई इन उपलब्धियों का ढोल नहीं पिटने जाता। इनके नाम पर उनसे किसी तरह के लाभ की अपेक्षा नहीं करता।
इसके उलट हर सियासी हरकत को शक की नजर से देखने को मजबूर हैं। क्योंकि सियासत ने हमें इतनी कड़वी यादें दी हैं कि क्षणिक बदलाव पर भी सहसा यकीन नहीं होता। हमने देखा है, कैसे किसी पंथ और फिकरे को संतुष्ट करने के लिए देश में कानून बनाए और बदले गए हैं। व्यवस्था को कठपुतली की तरह नचाया गया है। लोगों के आक्रोश को हवा देने के लिए शहरों को दंगों की आग में झोंका गया है। सियासत प्रायोजित कितने कत्लेआम हमने देखे और भोगे हैं। जम्हुरियत तर्ज ए हुकूमत जहां आदमी को गिना जाता है तौला नहीं जाता। उसी गिनती को अपने पक्ष में करने के लिए सियासत मदारी की तरह डमरू बजा रही है और हम लाठी लेकर अपनों के ही सामने खड़े हो गए हैं।
यही वजह है कि सियासत अक्सर मुझे आत्मघाती दस्ते की तरह लगती है, जो भस्मासुर की तरह हमारे सिर पर हाथ रखने के लिए पीछे भाग रही है। इसलिए हम सच में यही चाहते हैं कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष ऐसे ही कैलाश जाएं। मानसरोवर की यात्रा करें और मोदी मस्जिद में बैठकर वाअज सुने। हमारी धार्मिक मान्यताओं को समझें। परंपराओं का सम्मान करें। सांझी विरासत को बनाए रखने में मदद करें।