पूरी रात प्रेम की बारिश होती रहे तो सुबह की हर अंगडाई महक उठती है। रोम-रोम से जैसे झरना फूट पड़ता है। तिस पर कयामत तब होती है, जब वह भीगे बालों से सामने आ जाए। जिस्म तो ठीक रूह तक उनकी खुशबू का पैहरन ओढऩे को मजबूर हो जाती है। उसका जायका दिलो दिमाग इस इस कदर छा जाता है कि कुछ होश नहीं रहता। हर सांस में वही खुशबू फैल जाती है, कानों में बांसुरी और धडक़नों में सितार बजाती है।
इंदौर का जर्रा-जर्रा आज इस प्रेम की गवाही दे रहा है। शाम से लेकर पूरी रात बादलों ने टूटकर महोब्बत की है। ये उलाहनों का असर था या फिर उसे कोई पुराना वादा याद रहा। परदेस की यात्रा पर निकलने से पहले प्रेमी फिर मिलने आया। विरह की पीड़ा से उभरे जख्म सहलाए। स्नेहिल स्पर्श से दूरियों का दर्द बांटा। कभी साथ बैठा, कभी गोद में सिर रख दिया। कंधे थपथपाए, कभी दिलासा दिया। प्रेम की डोर जो टूटने को थी, उसकी गांठे खोलीं, सिलवटे मिटाईं। उसमें नए धागे जोड़ता रहा।
सारे किस्से फिर ताजा किए, यादों की संदूक वह साथ लेकर आया था। बालों में हाथ घुमाते हुए, एक-एक किस्सा मन के समुंदर में कंकण की तरह उछालता रहा। हर एक कंकण देर तक और दूर तक लहरें उठाता। मन को तरंगित करता, गुदगुता। सिर्फ रोंगटे नहीं खड़े होते, रोम-रोम में पुलक भर देता कि झुरझुरी सी मच जाती। एक क्षण को आराम मिलता तो लगता किस मुंह से इसे निष्ठुर कहा था। कैसे इसके बारे में कोई बुरा खयाल आया था। खुद को कोसने का मन करता। बाल नोचने की इच्छा होती, लेकिन वह इन विचारों के बीज उगने ही नहीं देता। प्रेम की हल्की सी धार उड़ेल देता और फिर सब लहालोट हो जाता।
पूरी रात धरती इस तरह बादलों के पे्रम में आकंठ डूबी रही। विरह के बाद मिलन की कशिश का बढऩा स्वाभाविक ही होता है। यहां प्रेम की तीव्रता तो थी, लेकिन परिपक्वता ने उसे पागलपन की सीमा लांघने का अवसर नहीं दिया। वह एक गति, एक लय में स्नेह बरसाता रहा और धरती प्रत्युत्तर में बाहों का शिकंजा कसती रही। दोनों के बीच किसी तल पर कोई अंतराल बाकी न रहा। दोनों एक माला में गूंथ गए। इस हद तक कि बूंदों की कोई लड़ी पकड़ कर बादलों के मचान तक पहुंचने का मन करने लगे।
और सुबह भी वह छल करने से बाज नहीं आया। बुजुर्ग सूरज का पर्दा गिराए रखा। शर्म, संकोच या लिहाज, जो कहें, वह नहीं चाहता था कि धरती पर इस हाल में सूरज दादा की नजर पड़े। शायद वह प्रेम की निशानियों को जीभर कर निहार लेना चाहता था। इसलिए रह-रह कर बरसता रहा। मानो सारे हिसाब चुकता करना चाहता हो। पिछले भी और अगले पलों के लिए इतनी ढेर यादें छोड़ जाना चाहता हो कि धरती बाकी के दिन तसल्ली से काट सके। इंतजार के पल उस पर भारी न गुजरे।
इस प्रेम का असर देखिए, सुबह सडक़ों ने उसे इस कदर बाहों में भरकर रखा था, मानो छोडऩा ही नहीं चाहती हो। उसे कंबल बनाकर ओढ़ लिया था, जिसके बाहर वह निकलने को तैयार नहीं थी। प्रेम का गुनगुना स्पर्श उसे निहाल किए हुए था। सडक़ रश्क कर रही थी उन गड्ढ़ों से, जिन्हें वह अपने जिस्म पर दाग की तरह लेती आई है। उन्हें देखकर वह रोमांचित हो रही थी कि ये कितने खुशकिस्मत हैं जो उसे और भीतर तक उतार पाए हैं।
पेड़ों का तो कुछ पूछिए ही मत। पीपल ने सभी के साथ पत्तियां झुका दी थीं, जैसे समर्पण कर दिया हो, प्रेम के आगे। लेकिन बूंदों को वह फिर भी छोडऩे को तैयार नहीं था। हर पत्ती पर यूं सहेज रखा था, उन्हें जैसे प्रियतम के चूंबन के निशान हो, जिन्हें वह स्मृतियों के नष्ट होने तक भी ताजा रखना चाहता हो। बॉटल ब्रश तो दीवाना था, उसके हर लच्छे, गुच्छे में बूंदों की लडिय़ां जमा थी। नीम की कड़वाहट पर अलग सा जुनून तारी था। गुलमोहर ने कुछ पत्ते गहरे किए, कुछ हल्के किए। जी भरकर चूम कर उसका रंग ही बदल गया।
इंदौर का रोम-रोम ऐसे ही खिलखिला रहा है। पत्ती-पत्ती, जर्रे-जर्रे में प्रेम की निशानियां धडक़ रही है। हर कहीं से फिजा में भीगे बालों की खुशबू घुल रही है, दीवाना कर रही है। और वह कमबख्त अभी भी गले में बाहें डाले बैठा है, आज तो जान ही लेकर जाएगा।
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