वैसे तो अब फिल्मों के सिक्वल बनने लगे हैं, लेकिन पहले जब यह बहुत कम होता था, मैं अक्सर क्लाइमैक्स के बाद के बारे में सोचता था। लगान में भुवन और गौरी की शादी के बाद क्या हुआ होगा। उनके गांव में तब तो बारिश हो गई थी, लेकिन उसके बाद भी क्या वैसे ही सूखा रहा होगा या बादल लोगों के प्रेम की मनुहार को मानकर हर बरस वहां वैसे ही बरसने लगे होंगे। चंपानेर में फिर क्रिकेट का क्या हुआ होगा। नई पीढिय़ों ने उसे कैसे लिया होगा। क्या कभी कोई अंग्रेज अपनी हार का बदला लेने के लिए फिर बल्ला उठाकर उनके गांव आया होगा। ऐसे कई सवाल हैं, जो कहानियों के साथ खत्म नहीं होते, बल्कि बढ़ते ही जाते हैं।
कभी खयाल आता कि अग्निपथ में अमिताभ के मरने के बाद हवा में गोलियां चलाने वाले कृष्णम अय्ययर येमए ने शिक्षा के साथ अपनी बाकी जिंदगी कैसे बिताई होगी। क्या वह अगला डॉन बना होगा या फिर उसने सारे धंधों से तौबा कर लिया होगा। सिलसिला में जब सबको अपनी गलतियों का अहसास हो गया, उसके बाद क्या कभी किसी लौटकर पीछे देखा होगा। किन हालातों में उनकी जिंदगी आगे बढ़ी होगी। कभी-कभी में क्या फिर से वे उसी पेड़ के नीचे जाकर बैठे होंगे। क्या किसी ने फिर वही गीत दोहराया होगा। अधिकतर प्रेम कहानियों के अंत सुनिश्चित होते हैं, बस घटनाक्रमों का प्रवाह अलग-अलग होता है। जो प्रेम कहानियां सफल हो जाती हैं, क्या वे बाद में अपनी असफलताओं को जुराबों से बाहर निकालकर दिखा पाती हैं या उन्हें उसी लबादे में छुपाकर हमेशा घूमती रहती है।
एक अंत के बाद कहानियों का दम भी तो घुटता ही होगा। आगे की बात कहने के लिए वे भी छटपटाती होंगी। जिंदगी में कोई किनारा आखिरी नहीं हो सकता, खासकर जब वह किसी कहानी का क्लाइमैक्स हो। कहानी ही क्या, जिंदगी का उपसंहार भी बहुत से बहुत किसी किरदार की भूमिका समेट पाता है, कहानी में एक मोड़भर ला पाता है। बाकी कहानी तो चलती ही रहती है। घड़ी की सुइयों की तरह उन्हें चलना ही होता है। सुइयां भले किसी दिन थम जाए, लेकिन वक्त उनके साथ कभी नहीं थमता है।
चूंकि फिल्मों की सीमा होती है, उन्हें तय समय में खत्म होना होता है, इसलिए उन्हें किसी एक कथानक में बांध दिया जाता है। किसी खूंटी पर टंगे कपड़े की तरह वे वहीं लटकी रहती है। हालांकि तब भी वह उतने ही घेरे में सिमटकर नहीं रह पाती है। कई सवाल छोड़ जाती है, जो अगली कहानियों की जमीन तैयार करती है। एक कहानी एक ही समय में कई कहानियों की बेटी होती है और साथ ही साथ कई अन्य की मां भी होती है। गुजरते हर पल के साथ आगे बढ़ते रहना ही उसकी नियती है।
फिल्मी कहानियों की तरह जिंदगी की दास्तां को किसी लक्ष्मण रेखा के पीछे रख पाना मुश्किल है। वे अपनी ही गति से बढ़ती हैं। हमारे आसपास भी अनगिनत कहानियां जिंदगियों के साथ अपनी ही लय में बढ़ रही हैं। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, कोई उन्हें सुने या वे जिल्द में मढ़ी किसी किताब की तरह अनखुली ही रह जाएं। सोई किताब में भी पन्नों के फडफ़ड़ाने से किरदार आपस में टकराते हैं और नई कहानियां गढ़ते रहते हैं। तब लगता है कि हर दृश्य एक कहानी है। हर नजारे के पीछे कोई कथा दुबकी बैठी है।
वह दरवाजे की दरार से आती रोशनी की हल्की सी किरण से झांक रही है। मछली का कांटा डालकर कहीं बैठी है। आप कहानियां नहीं चुनते, कहानियां आपको चुनती हैं। वे अपनी ओर खींचती हैं। इशारे कर के बुलाती है। इसलिए कोई कहानी कभी खत्म नहीं होती। वह तो हम ही हैं, जो कहानियों को अपनी सुविधा के अनुसार काट-छांटकर कहते सुनते हैं। जिस दिन हम कहानियों की रवानी में बहना सीख जाएंगे, उस दिन फिर कहीं कोई क्लाइमैक्स नहीं होगा। सिर्फ खालिस किस्सागोई होगी। नदी की तरह बहेंगे किस्से, किनारे आएंगे, जाएंगे, डुबेंगे-तैरेंगे और फलसफा यूं ही बढ़ता चला जाएगा।
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जहां कहानी खत्म होती है
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