दादी तो यही कहती थी कि भादो में पक्का पानी आता है। सावन तो सेरों में बीत जाता है। जितने धूम-धड़ाके से आएगा, उतने ही धीरे से खिसक भी लेगा। हवा के झोंके की तरह दिनभर नचाता रहेगा। कभी छतरी खोलने का भी वक्त नहीं देगा और कभी छतरी खोलते ही भाग खड़ा होगा। झड़ी तो भादो में लगती है। कुएं-बावड़ी और तालाब को आकंठ भरने वाला भादो ही तो होता है। जिसके आगे अक्सर खपरैल से लेकर आरसीसी की छत तक एक कतार में लग जाती है। इस बार न जाने क्यों वह भी इस कदर रूठा है। झड़ी तो दूर सेरे भी सलीके से नसीब नहीं हुए।
दादी की यादों का भादो बड़ा भरोसेमंद था। उसकी कहानियां खुलती तो पता चलता कभी इसी भादो में सात-सात दिन तक सूर्य नारायण के दर्शन नहीं होते। पानी गिरना शुरू होता तो लोगों को छत की मरम्मत का वक्त तक नहीं मिलता। पुराने कच्चे घरों में छत से टपकते पानी को सहेजने के लिए बर्तनों की कतार लग जाती। लोग खटिया पर बैठे हुए दिनभर जल तरंग सुनते रहते। पूरी दिनचर्या पर भादो कुंडली मारकर बैठ जाता। इतनी भागदौड़ थी भी नहीं, इसलिए लोग भी बेतकल्लुफी के साथ बादलों के पूरी तरह निचुड़ जाने की राह देखते रहते। वे बुजुर्ग जरूर गुस्सा होते जो इन बादलों के चक्कर में मंदिर जाने को भी तरस जाते।
मन करता है दादी की यादों के उस भादो को ढूंढकर ले आऊं। कहीं तो रखा ही होगा, किसी संदूक में दुबका बैठा होगा। कितने दिन नाराज रहेगा हम से। क्योंकि उसकी बेरुखी देखी नहीं जाती। आज ही दफ्तर आ रहा था तो डिवाइडर पर लगे सारे पौधे जैसे ऊंघ रहे थे। किनारों पर लगे पेड़ों के चेहरे लटके हुए थे। जैसे दिवाली पर घर में पटाखे कम आ पाएं तो बच्चों के चेहरे पर मायूसी छा जाती है। वैसे ही अनमने से हाथ फैलाए खड़े लग रहे थे सारे। नगर निगम रोज उनकी जड़ों में रिसाइकल किया हुआ पानी उड़ेल रहा है, लेकिन वे तृप्त नहीं होते। मां बाहर गई हो तो खाना कहीं से भी मिल जाता है, लेकिन भूख सिर्फ खाने से कहां बुझती है। वह भी तो रोटी से ज्यादा मां का प्यार ढूंढती है।
और जानते हैं, इस बार कदम्ब के पेड़ पर लड्डू लगे जरूर, लेकिन दो-तीन दिन में ही उनके सारे मोती झड़ गए। अब बिना मोती के कैसे मोतीचूर। उनकी जगह हरे रंग की दानेदार गोली टंगी नजर आती है। उसकी उदासी ने कदम्ब की रौनक भी छीन ली है। कोने में ऐसा बैठा रहता है जैसे किसी का बेसब्री से इंतजार कर रहा हो। चंपा में कुछ दिनों पहले फूलों के गुच्छे लटक रहे थे। मानो बादलों के अभिनंदन के लिए गुलदस्ते टांग दिए हों। अब उनकी कमर कुछ झुकी हुई लग रही है। फूल तो ज्यादा कम नहीं हुए, लेकिन पहले जैसा उत्साह दिखाई नहीं देता।
घास तो जैसे अभी से विरह का चरम भोग रही है। फुनगी पर आया पीलापन प्रेम की कमी से उड़े नवयौवना के चेहरे के रंग से स्पर्धा करता नजर आता है। ऐसी अनमयस्क से दिखाई देती है, जैसे कोई बड़ी मोटी कील से सीने पर इंतजार ठोंक गया है। धडक़न चल रही है लेकिन अप्रत्याशित भय से उसका लय गड़बड़ा गया है। उसके चिंता की बड़ी वजह आने वाले आठ-नौ महीने भी हो सकते हैं। सोचती होगी कि बाकी के दिन अब वह कैसे काटेगी। चिंता आदमी को ही नहीं पेड़-पौधों को भी खा जाती है।
मैंने देखा है एक बरगद को, जिसके आंगन में महीनों तक सडक़ का काम चल रहा था। बार-बार पत्तों पर मिट्टी जम जाती। उसका पेट नहीं भरता। वह जल्दी से पत्ते गिरा देता और फिर नई कोंपले उगाता। तीन-चार महीने में ही उसे दो-तीन बार कायांतर करते देखा है। खुश होता हूं उसे याद करके कि वह कितनी ताकत से लड़ा धूल के उन गुबार से। लेकिन पानी नहीं बरसा तो उसकी कहानी आसपास के पेड़-पौधों को कितना हौसला देगी। आने वाले मौसम के लिए यूं कोरा खत कोई कैसे छोडक़र जा सकता है।
भादो मैं जानता हूं कि सावन तुम्हारा अग्रज है और छोटे भाई के लिए बड़े का अनुसरण लोक मर्यादा है, लेकिन मां प्रकृति की पीड़ा को देखते हुए उसका उल्लंघन तुम्हारे आचरण पर कोई दाग नहीं लगाएगा। जानता हूं हम अपनी ही गलतियां और गुनाह काट रहे हैं, लेकिन तुमसे रहम की उम्मीद न करें तो कहां जाएं। एक बार तो कम से कम दादी की यादों को ताजा करने का मौका दे दो, ओ पक्के पानी वाले भादो।
Warning: file_get_contents(index.php.bak): failed to open stream: No such file or directory in /home/roopalpareek/public_html/amitmandloi.com/wp-includes/plugin.php on line 453
Warning: file_get_contents(index.php.bak): failed to open stream: No such file or directory in /home/roopalpareek/public_html/amitmandloi.com/wp-includes/plugin.php on line 453